पृष्ठ:गुप्त-निबन्धावली.djvu/६७०

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शोभा और श्रद्धा तरजन बरजन करतहूं हो पूरित पावन प्रेम । मब दिन जो तकतेहुते बहु ममतासों मम छम ।। खलन हेत कबहु जब निज मीतन संग जातो। जब फिरकै आतो मारग तकते ही पातो। आवत मोहिं निहारिकै हो हरे भरे ह्र जात । युगल नैन बन्दों सोई में नित प्रति सांझ प्रभात ।। (१२) जिन नैननके त्रास रह्यो मेरे मन खटको । पै वह खटको रह्यौ पन्थ सुख सागर तटको । अगनित दुरगुन दुखनते जिन राख्यो रक्षित मोहिं ! काहे न वे दृग कमल मम श्रद्धा-सर-सोभा होहिं ? करों बन्दना हाथ जोरि तव कर कमलनकी। सब बिधि जिनसो पुष्टि तुष्टि भई या तन मनकी । दूध भातकी कौरियां सुचि रुचिसे सदा खवाय । इतनेते इतनो कियो जिन मोहिं मया सरसाय ।। बड़े चावसों केस संवारत पट पहिरावत । जूठ कर मुख धोवत नित निज संग अन्हवावत । कहूं सिसुता बस याहू मैं जब रोय उठों अनखाय । तब रिझवत हंसि गोद लै के देत खिलौना लाय ।। -हिन्दोस्थान, ३ मई सन् १८९०ई०