पृष्ठ:गुप्त-निबन्धावली.djvu/६८८

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हंसी-दिल्लगी - सौरभ और सुगन्धकी पड़ी चहूं दिम धूम । धूल अंग तुम्हरे रहत वायू ताहि उड़ात, हमरो अति दुर्गन्धसों माथा फाट्यो जात | हमरे कोमल अंग कह ढाके राखत गौन, तुम्हरे अंग धोती फटी नाममात्रकी तीन । मेरे सिर पै कैप अरु मोरपुच्छ लहरात, तेरे सिर लिपड़ी फटी साफ मजूर दिखात । हमरी कटि-पेटी लसै कटिकहं राखत छीन, तुम तगड़ी लटकाय जिमि अंतड़ी बाहिर कीन । मम मुख “पौडर रोज” सों मानहु खिल्यो गुलाब, तुम खड़ि माटी पोत के माथो कियो खराब । मेरे चरन विलायती चिकनो सुन्दर बूट नागौरा तब पायमें ठाव ठांव रहे टूट । मम सुन्दर जंघान में सिल्क रहत नित छाय, सदा असभ्य शरीर तब रहत उघारो प्राय । मम मुख ढङ्ग विलायती निकसत धीरे बात, बबर तुम्हारी जिह्व है गोम् सम डकरात । बावरचीके हाथ हम खायं सदा तर माल, चूल्हा फूंकत तुम सदा खाओ रोटी दाल । हमरो बोली ‘गाड' है तुम छोड़ो 'हरिबोल' यज्ञ याग जप होम अरु मानो उत्सव दोल । देखतही तुमको सदा होत अरुचि उत्पन्न, छन छन आवत है बमी हियो होत उत्सन्न । भूमी अरु आकाश जिमि हम तुम भेद अथाह, हमरो तुम्हरो होयगो कैसे मित्र निबाह ? -हिन्दी बवासी, २३ सितम्बर सन् १८९५ ई. [ ६७१ ]