पृष्ठ:गुप्त-निबन्धावली.djvu/६९८

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हंसी-दिल्लगी प्रेम ईसाका छूटा, नेह मरियमसे टूटा । योगका पन्थ'बताओ, मुझे भी सङ्ग लगाओ।। पांव दबाऊं अलख जगाऊं सेवा करूं बनाय । साथ तुम्हारे सदा रहूंगी तनमें भसम रमाय ।। कहो तो अन्दर आऊं! कहो तो मन्दर आऊं। गूदड़ी झाड़ बिछाऊं ! ध्यान चरनोंका लाऊं।। बाबाजी चली जा रस्ते रस्ते—यहां जोगी अलमस्ते । भागो चेली गुड़की भेली मैं जोगी अवधूत । यहां फकत है कफनी सेली सींगी और विभूत ।। चली जा नाले नाले, कि जिससे पूंछ न हाले । करो घरमें गुलछरें, यहांसे बोलो भरें। चेलीजी कच्चे जोगी पक्कं भोगी बालक निपट नदान । जोग भोगका भेद न जाना दोनों एक समान ।। निरा चोला रंगवाया, जतीका वेष बनाया । जोगका भेद न पाया, मुफतमें अलख जगाया। बाबाजी हां मेरी जोगिन सब रस भोगिन रहौ सदा निरद्वन्द । आमन सीखो मुद्रा सीखो करी अभय आनन्द ।। जरा अब मिलकर बाजे, माल आवंगे ताजे । मिलंगे कितने बुल्लू, कर चिल्लूमें उल्लू ।। चेलागण वचन यतीजी इसका खोलो भेद। अण्डा भला कि मण्डा बाबा आंत भली या मेद । बिसकुट भला कि सोहनलवा बकबक भला कि वेद ।। [ ६८१ ]