हंसी-दिल्लगी
भाईसे किये भाई दूर, बिना विचारे बिना कुसूर ।
आओ एक प्रतिज्ञा कर, एक साथ सब जीव मरं ।
चाहे बंग होय सौ भाग, पर न छुटे अपना अनुराग ।
भोग विलास सभी दो छोड़, बाबूपनसे मुहलो मोड़।
छोड़ो सभी विदेशी माल, अपने घरका करो ग्वयाल ।
अपनी चीज आप बनाओ, उनसे अपना अंग मजाओ।
भजो बङ्गमाताका नाम, जिससे भला होय अञ्जाम ।
ताऊ और हाऊ
एक बागमें डेढ़ बकायन, उतरी वहां स्वर्गसे नायन ।
नायनने यह कही कहानी, मारवाड़में हुआ न पानी।
वहां कहतसे हाहाकार, कलकत्तमें बन्द बजार ।
कपड़ेकी बिकरी नहिं होती बिके न चादर बिके नधोती।
दोनों ओर देखके छूछा, हाऊने ताऊसे पूछा।
कहिये ताऊ अब क्या कर, कैसे अपनी पाकेट भर ।
बिकती नहीं एक भी गांठ, सब गाहक बन बैठे ठाठ ।
दिये बहुत लोगोंको झांसे, फंसता नहीं कोई भी फांसे ।
विजयादशमी है नजदीक, कुछ तो करना होगा ठीक ।
ताऊ कहे सुनो जी हाऊ, तुम निकले कोरे गुड़खाऊ ।
फंसे उसीको खूब फंसाओ, नहीं फंसे तो चुप होजाओ।
देश वेश चूल्हेमें जाय, “सांसो म्हारी करै बलाय” ।
खाओपीओ मजे उड़ाओ, अकड़ अकड़के शान दिखाओ।
नहीं पीसगुड पटसन तो है, नारंगी नहिं बैगन तो है।
पटसनके रस्से बटवाओ, उससे सारा घर बंधवाओ !
सारा घर जब होगा एक, तभी रहेगी अपनी टेक ।।
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पृष्ठ:गुप्त-निबन्धावली.djvu/७२८
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