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त्रिया - चरित्र
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सीती तो कपड़ों के साथ मगनदास का दिल छिद जाता। मगर कुछ बस था न काबू ।

मगनदास की हृदयवेधी दृष्टि को इसमें तो कोई सन्देह नहीं था कि उसके प्रेम का आकर्षण बिलकुल बेअसर नहीं है वर्ना रम्भा की उन वफ़ा से भरी हुई खातिर- दारियों की तुक कैसे बिठाता। वफ़ा ही वह जादू है जो रूप के गर्व का सिर नीचा कर सकता है। मगर प्रेमिका के दिल में बैठने का माद्दा उसमें बहुत कम था। कोई दूसरा मनचलाप्रेमी अब तक अपने वशीकरण में कामयाव हो चुका होता लेकिन मगनदास ते दिल आशिक़ का पाया था और जवान माशूक की।

एक रोज़ शाम के वक्त चम्पा किसी काम से बाजार गयी हुई थी और मगन- दास हमेशा की तरह चारपाई। पड़ा सपने देख रहा था कि रम्भा अद्भुत छटा के साथ आकर उसके सामने खड़ी हो गयी । उसका भोला चेहरा कमल की तरह खिला हुआ था और आँखों से सहानुभूति का भाव झलक रहा था। मगनदास ने उसकी तरफ़ पहले आश्चर्य और फिर प्रेम की निगाहों से देखा और दिल पर जोर डालकर बोला-आओ रम्भा, तुम्हें देखने को बहुत दिन से आँखें तरस रही थीं।

रम्भा ने भोलेपन से कहा-~-मैं यहाँ न आती तो तुम मुझसे कभी न बोलते।

मगनदास का हौसला बढ़ा, बोला-बिना मर्जी पाये तो कुत्ता भी नहीं आता।

रम्भा मुस्करायी, कली खिल गयी--मैं तो आप ही चली आयी।

मगनदास' का कलेजा उछल पड़ा। उसने हिम्मत करके रम्भा का हाथ पकड़ लिया और भावावेश से काँपती हुई आवाज में बोला-नहीं रम्भा, ऐसा नहीं है। यह मेरी महीनों की तपस्या का फल है।

मगनदास ने वेताब होकर उसे गले से लगा लिया। जब वह चलने लगी तो अपने प्रेमी की और प्रेमभरी दृष्टि से देखकर बोली-अव यह प्रीत हमको निभानी होगी।

पौ फटने के वक्त जब सूर्य देवता के आगमन की तैयारियाँ हो रही थीं, मगन- दास की आँख खुली। रम्भा आटा पीस रही थी। उस शान्तिपूर्ण सन्नाटे में चक्की की घुमर-घुमर बहुत सुहानी मालूम होती थी और उससे सुर मिलाकर अपने प्यारे ढंग से गाती थी-

झुलनियाँ मोरी पानी में गिरी
मैं जानूं पिया मोको मनै हैं
उलटी मनावत मोको पड़ी
झुलनियाँ मोरी पानी में गिरी