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त्रिया- चरित्र
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एक जेवर भी न था। ज्योंही पर्दा उठा और मगनदास ने अन्दर क़दम रक्खा, वह मुस्कराती हुई उसकी तरफ बढ़ी। मगनदास ने उसे देखा और चकित होकर बोला, रम्भा !' और दोनों प्रेमावेश से लिपट गये। दिल में बैठी हुई रम्भा बाहर निकल आयी थी।

साल भर गुजरने के बाद एक दिन इन्दिरा ने अपने पति से कहा- क्यारम्भा को बिलकुल भूल गये? कैसे बेवफा हो! कुछ याद है, उसने चलते वक्त तुमसे क्या बिनती की थी?

मगनदास ने कहा-खूब याद है। वह आवाज़ भी कानों में गूंज रही है। मैं रम्भा को भोली-भाली लड़की समझता था। यह नहीं जानता था कि यह त्रिया- चरित्र का जादू है। मैं अपनी रम्भा को अब भी इन्दिरा से ज्यादा प्यार करता हूं। तुम्हें डाह तो नहीं होती?

इन्दिरा ने हँसकर जबाब दिया--डाह क्यों हो। तुम्हें रम्भा है तो क्या मेरा मगनसिंह नहीं है। मैं अब भी उस पर मरती हूँ।

दूसरे दिन दोनों दिल्ली. से एक राष्ट्रीय समारोह में शरीक होने का बहाना करके रवाना हो गये और सागर घाट जा पहुँचे। वह झोंपड़ा, वह मुहब्बत का मन्दिर, वह प्रेम-भवन फूल और हरियाली से लहरा रहा था। चम्पा मालिन उन्हें वहाँ मिली। गांव के जमीन्दार उनसे मिलने के लिए आये, कई दिन तक फिर मगनसिंह को घोड़े निकालना पड़े। रम्भा कुएं से पानी लाती, खाना पकाती, फिर चक्की पीसती और गाती। गांव की औरतें फिर उससे अपने कुते और बच्चों की लेसदार टोपियाँ सिलाती। हां, इतना जरूर कहतीं कि उसका रंग कैसा निखर आया है, हाथ-पांव कैसे मुलायम पड़ गये हैं, किसी बड़े घर की रानी मालूम होती है। मगर स्वभाव वही है, वही मीठी बोली है, वही मुरौक्त, वही हँसमुख चेहरा।

इस तरह एक हफ्ते तक इस सरल और पवित्र जीवन का आनन्द उठाने के बाद दोनों दिल्ली वापस आये और अब दस साल गुजरने पर भी साल में एक बार उस झोपड़े के नसीव जागते हैं। वह मुहब्बत की दीवार अभी तक उन दोनों प्रेमियों को अपनी छाया में आराम देने के लिए खड़ी है।

---ज्ञमाना, जनवरी १९१३