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गुप्त धन
 


ने, झूठे नक़ली इनकार ने, चमत्कार कर दिखाया। कैसा कोमल हृदय है। गुलाब की पंखुड़ी की तरह, जो मुरझा जाती है मगर मैली नहीं होती। कहाँ मेरा ओछापन, खुदग़र्ज़ी और कहाँ यह बेखुदी, यह त्याग, यह साहस।

दयाशंकर के सीने से लिपटी हुई गिरिजा उस वक्त अपने प्रबल आकर्षण से उनके दिल को खींचे लेती थी। उसने जीती हुई बाज़ी हारकर आज अपने पति के दिल पर कब्ज़ा पा लिया। इतनी ज़बर्दस्त जीत उसे कभी न हुई थी। आज दयाशंकर को मुहब्बत और भोलेपन की इस मूरत पर जितना गर्व था उसका अनुमान लगाना कठिन है। ज़रा देर में वह उठ खड़े हुए और बोले—एक शर्त पर चलूँगा।

गिरिजा—क्या?

दयाशंकर—अब कभी मत रूठना।

गिरिजा—यह तो टेढ़ी शर्त है मगर...मंजूर है।

दो-तीन क़दम चलने के बाद गिरिजा ने उनका हाथ पकड़ लिया और बोली—तुम्हें भी मेरी एक शर्त माननी पड़ेगी।

दयाशंकर—मैं समझ गया। तुमसे सच कहता हूँ, अब ऐसा न होगा।

दयाशंकर ने आज गिरिजा को भी अपने साथ खिलाया। वह बहुत लजायी, बहुत हीले किये, कोई सुनेगा तो क्या कहेगा, यह तुम्हें क्या हो गया है। मगर दयाशंकर ने एक न मानी और कई कौर गिरिजा को अपने हाथ से खिलाये और हर बार अपनी मुहब्बत का बेदर्दी के साथ मुआवजा लिया।

खाते-खाते उन्होंने हँसकर गिरिजा से कहा—मुझे न मालूम था कि तुम्हें मनाना इतना आसान है?

गिरिजा ने नीची निगाहों से देखा और मुस्करायी, मगर मुँह से कुछ न बोली।

—उर्दू 'प्रेम पचीसी' से