पृष्ठ:गुप्त धन 1.pdf/१५८

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१४६ गुप्त बन थीं। मगर कथनी और करनी में आदि और अन्त का अन्तर है। एक व्यक्ति को भी खड़े होने का साहस न हुआ। कैंची की तरह चलनेवाली जबानें भी ऐसे महान् उत्तरदायित्व के भय से बन्द हो गयीं। ५ अकुर दर्शनसिंह अपनी जगह पर बैठे हुए इस दृश्य को बहुत गौर और दिलचस्पी से देख रहे थे। वे अपने धार्मिक विश्वासों में चाहे कट्टर हों या न हों, लेकिन सांस्कृतिक मामलों में वे कभी अगुआई करने के दोषी नहीं हुए थे। इस पेचीदा और डरावने रास्ते में उन्हें अपनी बुद्धि और विवेक पर भरोसा नहीं होता था। यहाँ तर्क और युक्ति को भी उनसे हार माननी पड़ती थी। इस मैदान में वह अपने घर की स्त्रियों की इच्छा पूरी करना ही अपना कर्तव्य समझते थे और चाहे उन्हें खुद किसी मामले में कुछ एतराज़ भी हो लेकिन यह औरतों का मामला था और इसमें वे हस्तक्षेप नहीं कर सकते थे क्योंकि इससे परिवार की व्यवस्था में हलचल और गड़बड़ी पैदा हो जाने की जबरदस्त आशंका रहती थी। अगर किसी वक्त उनके कुछ जोशीले नौजवान दोस्त इस कमजोरी पर उन्हें आड़े हाथों लेते तो वे बड़ी बुद्धिमत्ता से कहा करते थे—भई, यह औरतों के मामले हैं, उनका जैसा दिल चाहता है करती हैं, मैं बोलनेवाला कौन हूँ। ग़रज यहाँ उनकी फ़ौजी गर्म-मिज़ाजी उनका साथ छोड़ देती थी। यह उनके लिए तिलिस्म को घाटी थी जहाँ होश-हवास बिगड़ जाते थे और अन्धे अनुकरण का पैर बॅयी हुई गर्दन पर सवार हो जाता था। लेकिन यह ललकार सुनकर वे अपने को काबू में न रख सके। यही वह मौका. था जब उनकी हिम्मतें आसमान पर जा पहुँचती थीं। जिस बोड़े को कोई न उठाये उसे उठाना उनका काम था। वर्जनाओं से उनको आत्मिक प्रेम था। ऐसे मौके पर वे नतीजे और मसलहत से बगावत कर जाते थे और उनके इस हौसले में यश के लोभ को उतना दखल नहीं था जितना उनके नैसर्गिक स्वभाव को। वर्ना यह असम्भव था कि एक ऐसे जलसे में जहाँ ज्ञान और सभ्यता की धूमधाम थी, जहाँ सोने की ऐनकों से रोशनी और तरह-तरह के परिवानों से दीप्त चिन्तन की किरणें निकल रही थीं, जहाँ कपड़े-लते की नफासत से रोव और मोटापे से प्रतिष्ठा की झलक. आती थी, वहाँ एक देहाती किसान को जवान खोलने का हौसला होता। ठाकुर ने इस दृश्य को गौर और दिलचस्पी से देखा। उसके पहलू में गुदगुदी-सी हुई। जिन्दादिली का जोश रगों में दौड़ा। वह अपनी जगह से उठा और मदीना लहजे