पृष्ठ:गुप्त धन 1.pdf/१६४

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१५२ , गुप्त धन हीरामणि-सोलहों आना। अच्छा गांव है। न बड़ा न छोटा। यहाँ से दस कोस है। बीस हजार तक बोली चढ़ चुकी है। सौ दो सौ में खत्म हो जायगा। रेवती---अपने दादा से तो पूछो ? हीरामणि-उनके साथ दो घंटे तक माथापच्ची करने की किसे फुरसत है। हीरामणि अब घर का मालिक हो गया था और चिन्तामणि की एक न चलने पाती। वह गरीब अब ऐनक लगाये एक गद्दे पर बैठे अपना वक्त खांसने में खर्च करते थे। दूसरे दिन हीरामणि के नाम पर श्रीपुर खत्म हो गया। महाजन से जमींदार हुए। अपने मुनीम और दो चपरासियों को लेकर गांव की सैर करने चले। श्रीपुरवालों को खबर हुई। नये जनींदार का पहला आगमन था। घर-घर नजराने देने की तैयारियां होने लगी। पांचवें दिन शाम के वक्त हीरामणि गांव में दाखिल हुए। दही और चावल का तिलक लगाया गया और तीन सौ असामी पहर रात तक हाथ बांधे हुए उनकी सेवा में खड़े रहे। सबेरे मुख्तारेआम ने असामियों का परिचय कराना शुरू किया। जो असामी जमींदार के सामने आता वह अपनी बिसात के मुताबिक़ एक या दो रुपये उनके पांव पर रख देता। दोपहर होते-होते वहाँ पांच सौ रुपयों का ढेर लगा हुआ था। हीरामणि को पहली बार जमींदारी का मजा मिला, पहली बार घन और बल का नशा महसूस हुआ। सब नशों से ज्यादा तेज, ज्यादा घातक धन का नशा है। जब असामियों की फेहरिस्त खतम हो गयी तो मुख्तार से बोले--और कोई असामी तो बाकी नहीं है? मुख्तार--हां महाराज, अभी एक असामी और है, तखत सिंह। हीरामणि-वह क्यों नहीं आया? मुख्तार-जरा मस्त है। हीरामणि-मैं उसकी मस्ती उतार दूंगा। जरा कोई उसे बुला लाये। थोड़ी देर में एक बूढ़ा आदमी लाठी टेकता हुआ आया और दण्डवत् करके जमीन पर बैठ गया, न नजर न नियाज़। उसकी यह गुस्ताखी देखकर हीरामणि को बुखार चढ़ आया। कड़ककर बोले---अभी किसी ज़मींदार से पाला नहीं पड़ा है। एक-एक की हेकड़ी भुला दूंगा! तखत सिंह ने हीरामणि की तरफ गौर से देखकर जवाब दिया-मेरे सामने बीस जमींदार आये और चले गये। मगर कभी किसी ने इस तरह घुड़की नहीं दी।