पृष्ठ:गुप्त धन 1.pdf/१७४

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१६२ गुप्त धन को खेतों में लहराते देखकर किसानों के दिल लहराने लगते थे। साल भर की परती जमीन ने सोना उगल दिया था। औरतें खुश थीं कि अब की नये-नये गहने बनवायेंगे, मर्द खुश थे कि अच्छे-अच्छे बैल मोल लेंगे और दारोगा जी की खुशी का तो अन्त ही न था। ठाकुर साहब ने यह खुशखबरी सुनी और देहात की सैर को चले। वही शानशौकत, वही लठतों का रिसाला, वही गुंडों की फौज ! गाँववालों ने उनके आदर-सत्कार की तैयारियां करनी शुरू की। मोटे-ताजे बकरों का एक पूरा गल्ला चौपाल के दरवाजे पर बाँधा । लकड़ी के अम्बार लगा दिये, दूध के हौज भर दिये। ठाकुर साहब गाँव की मेड़ पर पहुँचे तो पूरे एक सौ आदमी उनकी अगवानी के लिए हाथ बाँधे खड़े थे। लेकिन पहली चीज़ जिसकी फरमाइश हुई वह लेमनेड और बर्फ़ था। असामियों के हाथों के तोते उड़ गये। यह पानी की बोतल इस वक्त वहाँ अमृत के दामों बिक सकती थी। मगर बेचारे देहाती अमीरों के चोंचले क्या जानें। मुजरिमों की तरह सिर झुकाये भौंचक खड़े थे। चेहरे पर झेंप और शर्म थी। दिलों में धड़कन और भय । ईश्वर बात बिगड़ गयी है, अब तुम्हीं सम्हालो। बर्फ की ठण्डक न मिली तो ठाकुर साहब की प्यास की आग और भी तेज हुई, गुस्सा भड़क उठा, कड़ककर बोले--मैं शैतान नहीं हूं कि बकरों के खून से प्यास बुझाऊँ, मुझे ठंडा बर्फ चाहिए और यह प्यास तुम्हारे और तुम्हारी औरतों के आँसुओं से ही बुझेगी। एहसानफ़रामोश, नीच, मैंने तुम्हें जमीन दी, मकान दिये और हैसियत दी और इसके बदले में तुम ये दे रहे हो कि मैं खड़ा पानी को तरसता हूँ ! तुम इस काबिल नहीं हो कि तुम्हारे साथ कोई रियायत की जाय। कल शाम तक मैं तुममें से किसी आदमी की सूरत इस गाँव में न देखू वर्ना प्रलय हो जायगा। तुम जानते हो कि मुझे अपना हुक्म दुहराने की आदत नहीं है। रात तुम्हारी है, जो कुछ ले जा सको, ले जाओ। लेकिन शाम को मैं किसी की मनहूस सूरत न देखू । यह रोना और चीखना फिजूल है, मेरा दिल पत्थर का है और कलेजा लोहे का, आँसुओं से नहीं पसीजता। और ऐसा ही हुआ। दूसरी रात. को सारे गाँव में कोई दिया जलानेवाला तक न रहा । फूलता-फलता हुआ गाँव भूत का डेरा बन गया। बहुत दिनों तक यह घटना आस-पास के मनचले किस्सागोयों के लिए दिल