पृष्ठ:गुप्त धन 1.pdf/१७८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

गुप्त धन थी, वह लोग मिल गये । आपको मालूम है कि यह गाँव कई बार उजड़ा और कई बार बसा । उसका कारण यही था कि वे लोग मेरी कसौटी पर पूरे न उतरते थे। मैं उनका दुश्मन नहीं था लेकिन मेरी दिली आरजू यह थी कि इस गाँव में वे लोग आबाद हों जो जुल्म' का मदों की तरह सामना करें, जो अपने अधिकारों और रिआयतों की मर्दो की तरह हिफ़ाजत करें, जो हुकूमत के गुलाम न हों, जो रोब और अख्तियार की तेज निगाह देखकर बच्चों की तरह डर से सहम न जायें। मुझे इत्मीनान है कि बहुत नुकसान और शर्मिन्दगी और बदनामी के बाद मेरी तमन्नाएँ पूरी हो गयीं। मुझे इत्मीनान है कि आप उल्टी हवाओं और ऊँची-ऊँची उठनेवाली लहरों का मुकाबला कामयाबी से करेंगे। मैं आज इस गाँव से अपना हाथ खींचताहूँ। आज से यह आपकी मिल्कियत है। आपही इसके जमीन्दार और मालिक हैं। ईश्वर से मेरी यही प्रार्थना है कि आप फूलें-फलें और सरसब्ज हों। इन शब्दों ने दिलों पर जादू का काम किया। लोग स्वामिभक्ति के आवेश से मस्त हो होकर ठाकुर साहब के पैरों से लिपट गये और कहने लगे-हम आपके क़दमों से जीते-जी जुदा न होंगे। आपका-सा क़द्रदान और रिआया-परवर बुजुर्ग हम कहाँ पायेंगे। वीरों की भक्ति और सहानुभूति, वफादारी और एहसान का एक बड़ा दर्दनाक और असर पैदा करनेवाला दृश्य आँखों के सामने पेश हो गया। लेकिन ठाकुर साहब अपने उदार निश्चय पर दृढ़ रहे और गो पचास साल से ज्यादा गुज़र गये हैं लेकिन उन्हीं बंजारों के वारिस अभी तक मौज़ा साहबगंज के माफीदार हैं। औरतें अभी तक ठाकुर प्रद्युम्न सिंह की पूजा और मन्नतें करती हैं और गो अब इस मौज़े के कई नौजवान दौलत और हुकूमत की बुलन्दी पर पहुंच गये हैं लेकिन बूढ़े और अक्खड़ हरदास के नाम पर अब भी गर्व करते हैं। और भादों सुदी एकादशी के दिन अब भी उसी मुबारक फतेह की यादगार में जशन मनाये जाते हैं। जमाना, अक्तूबर १९१३