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वफ़ा का खंजर
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विजयगढ़ ने जवाब दिया-जयगढ़ की फ़ौज आये, हम उसकी अगवानी के लिए हाज़िर हैं। शीरी बाई जब तक यहां की अदालत से हुक्म-उदूली की सजा न पाले, वह रिहा नहीं हो सकती और जयगढ़ को हमारे अन्दरूनी मामलों में दखल देने का कोई हक नहीं।

असकरी ने मुंहमांगी मुराद पायी। खुफ़िया तौर पर एक दूत मिर्जा जलाल के पास रवाना किया और खत में लिखा- 'आज विजयगढ़ से हमारी जंग छिड़ गयी, अब खुदा ने चाहा तो दुनिया जयगढ़ की तलवार का लोहा मान जायगी। मंसूर का बेटा असकरी फ़तेह के दरबार का एक अदना दरबारी बन सकेगा और शायद मेरी वह दिली तमन्ना भी पूरी हो जो हमेशा मेरी रूह को तड़पाया करती है। शायद मैं मिर्जा मंसूर को फिर जयगढ़ की रियासत में एक ऊंची जगह पर बैठे हुए देख सकू! हम मन्दौर से न बोलेंगे और आप भी हमें न छेड़िएगा लेकिन अगर खुदा न ख्वास्ता कोई मुसीबत आ ही पड़े तो आप मेरी यह मुहर जिस सिपाही या अफ़सर को दिखा देंगे बह आपकी इज्जत करेगा और आपको मेरे कैम्प में पहुंचा देगा। मुझे यकीन है कि अगर जरूरत पड़े तो उस जयगढ़ के लिए जो आपके लिए इतना प्यारा है और उस असकरी के खातिर जो आपके जिगर का टुकड़ा है, आप थोड़ी-सी तकलीफ़ से (मुमकिन है वह रूहानी तकलीफ़ हो) दरेग न फ़रमायेंगे।

इसके तीसरे दिन जयगढ़ की फ़ौज ने विजयगढ़ पर हमला किया और मन्दौर से पांच मील के फ़ासले पर दोनों फ़ौजों का मुकाबला हुआ। विजयगढ़ को अपने हवाई जहाजों, जहरीले गड्डों, और दूर तक मार करनेवाली तोपों का घमण्ड था। जयगढ़ को अपनी फ़ौज की बहादुरी, जीवट, समझदारी और वुद्धि का भरोसा । विजयगढ़ की फ़ौज नियम और अनुशासन की गुलाम थी, जयगढ़ वाले जिम्मेदारी और तमीज के कायल।

एक महीने तक दिन-रात, मार-काट के मार्के होते रहे। हमेशा आग और गोलों और जहरीली हवाओं का तूफ़ान उठा रहता। इन्सान थक जाता था, पर कलें अथक थीं। जयगढ़ियों के हौसले पस्त हो गये, बार-बार हार पर हार खायी। असकरी को मालूम हुआ कि ज़िम्मेदारी फ़तेह में चाहे करिश्मे कर दिखाये, पर शिकस्त में मैदान हुक्म की पाबन्दी ही के हाथ रहता है।

जयगढ़ के अखबारों ने मन्त्रियों पर हमले शुरू किये। असकरी सारी कौम की लानत-मलामत का निशाना बन गया। वही असकरी जिस पर जयगढ़ फ़िदा