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गुप्त धन
 


बांहों में तेगा पकड़ने की ताकत न होती तो खुदा की क़सम, मैं खुद ही तेगा कमर से खोलकर रख देता। मगर खुदा का शुक्र है कि मैं इन इलज़ामों से बरी हूँ। फिर क्यों मैं इसे हाथ से जाने दूं ? क्या इसलिए कि मेरी बुराई चाहनेवाले कुछ थोड़े से डाहियों ने सरदार नमकखोर का मन मेरी तरफ से फेर दिया है। ऐसा नहीं हो सकता।

मगर फिर उसे खयाल आया, मेरी सरकशी पर सरदार और भी गुस्सा हो जायगे और यकीनन मुझसे तलवार शमशीर के जोर से छीन ली जायेगी। ऐसी हालत में मेरे ऊपर जान छिड़कनेवाले सिपाही कब अपने को काबू में रख सकेंगे। जरूर आपस में खून की नदियाँ बहेंगी और भाई भाई का सिर कटेगा। खुदा न करे कि मेरे सबब से यह दर्दनाक मार-काट हो। यह सोचकर उसने चुपके से शमशीर सरदार नमकखोर के वग़ल में रख दी और खुद सर नीचा किये जब्त की इन्तहाई कूवत से गुस्से को दवाता हुआ खेमे से बाहर निकल आया।

मसऊद पर सारी फ़ौज गर्व करती थी और उस पर जाने वारने के लिए हथेली में सर लिये रहती थी। जिस वक्त उसने तलवार खोली है, दो हजार सूरमा सिपाही मियात पर हाथ रक्खे और शोले बरसाती हुई आँखों से ताकले कनौतियाँ बदल रहे थे। मसऊद के एक जरा से इशारे की दे थी और दम के दम में लाशों के ढेर लग जाते। मगर मसऊद बहादुरी ही में वेजोड़ न था, जन्त और धीरज में भी उसका जवाब न था। उसने यह ज़िल्लत और बदनामी सब गवारा की, तल-वार देना गवारा किया, बग़ावत का इलज़ाम लेना गवारा किया और अपने साथियों के सामने सर झुकाना गवारा किया मगर यह गवारा न किया कि उसके कारण फ़ौज में बगावत और हुक्म न मानने का खयाल पैदा हो। और ऐसे नाजुक वक्तः में जब कि कितने ही दिलेर जिन्होंने लड़ाई की आजमाइश में अपनी बहादुरी का सबूत दिया. था, जब्त हाथ से खो बैठते और गुस्से की हालत में एक-दूसरे के गले काटते, खामोश रहा और उसके पैर नहीं डगमगाये। उसकी पेशानी पर जरा भी बल न आया, उसके तेवर जरा भी न बदले। उसने खून बरसती हुई आँखों से दोस्तों को अलविदा कहा और हसरत भरा दिल लिये उठा और एक गुफा में छिप बैठा और जब सूरज डूबने पर वहाँ से उठा तो उसके दिल ने फैसला कर लिया था कि बदनामी का दारा माथे से मिटाऊँगा और डाहियों को शर्मिन्दगी के गड्ढे में गिराऊँगा ।

मसऊद ने फ़क़ीरों का भेस अख्तियार किया, सर पर लोहे की टोपी के बजाय