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विक्रमादित्य का तेगा
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सड़क पर दोनों तरफ़ तमाशाइयों का ठट लगा था। खुशी को रंगों से भी कोई गहरा सम्बन्ध है। जिधर आँख उठती थी रंग ही रंग दिखायी देते थे। ऐसा मालूम होता था कि कोई उमड़ी हुई नदी रंग-बिरंगे फूलों को क्यारियों से बहती चली आती है।

अपनी खुशी के जोश में कभी-कभी लोग अभद्रता भी कर बैठते थे। एक पंडित जी मिर्जई पहने सर पर गोल टोपी रक्खे तमाशा देखने में लगे थे। किसी मनचले ने उनकी तोंद पर एक चमगादड़ चिमटा दी। पंडित जी बेतहाशा तोंद मटकाते हुए भागे। बड़ा कहतहा पड़ा। एक और मौलवी साहब नीची अचकन पहने एक दुकान पर खड़े थे। दुकानदार ने कहा—मौलवी साहब, आपको खड़े-खड़े तकलीफ होती है, यह कुर्सी रक्खी हुई है, बैठ जाइए। मौलवी साहब बहुत खुश हुए, सोचने लगे कि शायद मेरे रूप-रंग से रोब झलक रहा है वर्ना दुकानदार कुर्सी क्यों देता? दुकानदार आदमियों के बड़े पारखी होते हैं । हजारों आदमी खड़े हैं, मगर उसने किसी से बैठने की प्रार्थना न की। मौलवी साहब मुस्कराते हुए कुर्सी पर बैठे, मगर बैठते ही पीछे की तरफ़ लुढ़के और नीचे बहती हुई नाली में गिर पड़े। सारे कपड़े लथपथ हो गये। दुकानदार को हजारों खरी-खोटी सुनायी। बड़ा कहकहा पड़ा। कुर्सी तीन ही टाँग की थी।

एक जगह कोई अफ़ीमची साहब तमाशा देखने आये हुए थे। झुकी हुई कमर, पोपला मुंह, छिदरे-छिदरे सर के बाल और दाड़ी के बाल मेंहदी से रँगे हुए थे। आँखों में सुरमा भी था। आप बड़े गौर से सैर करने में लगे थे। इतने में एक हलवाई सर पर खोमचा रवखे हुए आया और बोला—खाँ साहब, जुमेरात की गुलाबवाली रेवड़ियाँ हैं। आज पैसे की आध पाच लगा दी, खा लीजिए वर्ना पछताइएगा। अफ़ीमची साहब ने जेब में हाथ डाला मगर पैसे न थे। हाथ मल कर रह गये, मह में पानी भर आया। गुलाबवाली रेवड़ियाँ और पैसे में आध पाव! न हुए। पैसे नहीं तो सेरों तुला लेते। हलवाई ताड़ गया, बोला—आप पैसों की कुछ फिक्र न करें, पैसे फिर मिल जायेंगे! आप कोई ऐसे-वैसे आदमी थोड़े ही हैं। अफ़ीमची साहब की बाँछे खिल गयीं। रूह फड़क उठी। आपने पाव भर रेवड़ियाँ ली और जी में कहा—अब पैसा देनेवाले पर लानत है। घर से निकलूंगा ही नहीं, तो पैसे क्या लोगे? अपने रूमाल में रेवड़ियाँ लीं। आशिक के दिल में सब कहाँ? मगर ज्योंही पहली रेवड़ी जबान पर रक्खी कि तिलमिला गये। पागल कुत्ते की तरह पानी की तलाश में इधर-उधर दौड़ने लगे। आँख और नाक से पानी बहने लगा। आधा