पृष्ठ:गुप्त धन 1.pdf/७४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
६२
गुप्त धन
 


महाराज बोले—श्यामा, मैं तुम्हारा गाना सुनकर बहुत खुश हुआ, तुम्हें क्या इनाम दूं?

श्यामा ने एक विशेष भाव से सिर झुकाकर कहा—हुजूर के अख्तियार में सब कुछ है।

रनजीतसिंह—जागीर लोगी?

श्यामा—ऐसी चीज़ दीजिए, जिससे आपका नाम हो जाय।

महाराज ने वृन्दा की तरफ़ गौर से देखा। उसकी सादगी कह रही थी कि वह धन-दौलत को कुछ नहीं समझती। उसकी दृष्टि की पवित्रता और चेहरे की गम्भीरता साफ़ बता रही थी कि वह वेश्या नहीं है जो अपनी अदाओं को बेचती है। फिर पूछा—कोहनूर लोगी?

श्यामा—वह हुजूर के ताज में अधिक सुशोभित है।

महाराज ने आश्चर्य में पड़कर कहा—तुम खुद माँगो।

श्यामा—मिलेगा?

रनजीतसिंह—हाँ।

श्यामा—मुझे इन्साफ़ के खून का बदला दिया जाय।

महाराज रनजीतसिंह चौंक पड़े। वृन्दा की तरफ़ फिर गौर से देखा और सोचने लगे इसका क्या मतलब ह? इन्साफ़ तो खून का प्यासा नहीं होता, यह औरत ज़रूर किसी जालिम रईस या राजा की सतायी हुई है। क्या अजब है कि उसका पति कहीं का राजा हो। जरूर ऐसा ही है। उसे किसी ने क़त्ल कर दिया है। इन्साफ़ को खून की प्यास इसी हालत में होती है। इसी वक्त इन्साफ़ खूखार जानवर हो जाता है। मैंने वादा किया है कि वह जो कुछ मांगेगी वह दूंगा। उसने एक बेशकीमत चीज़ मांगी है, इन्साफ़ के खून का बदला। वह उसे मिलना चाहिए। मगर किसका खून? राजा ने फिर पहलू बदलकर सोचा—किसका खून? यह सवाल मेरे दिल में न पैदा होना चाहिए। इन्साफ़ जिसका खून माँगे उसका खून मुझे देना चाहिए। इन्साफ़ के सामने सबका खून बराबर है। मगर इन्साफ़ को खून पाने का हक है, इसका फैसला कौन करेगा? बैर के बुखार से भरे हुए आदमी के हाथ में इसका फैसला नहीं रहना चाहिए। अक्सर एक कड़ी बात, एक दिल जला देनेवाला ताना इन्सान के दिल में खून की प्यास पैदा कर देता है। इस दिल जलानेवाले ताने की आग उस वक्त तक नहीं बुझती जब तक उस पर खून के छींटे न दिये जायें। मैंने जबान दे दी है तो ग़लती। पूरी बात सुने बगैर, मुझे इन्साफ के खून का बदला