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आखिरी मंजिल
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दिल बैठ गया। क्या उस अभागे की तलाश में यह किश्ती भी डूबेगी! मगर मोहिनी का दिल उस वक्त उसके बस में न था। उसी दिये की तरह उसका हृदय भी भावनाओं की विराट्, लहरों भरी, गरजती हुई नदी में बहा जा रहा था। मतवाली घटायें झुकती चली आती थीं कि जैसे नदी से गले मिलेंगी और वह काली नदी यों उठती थी कि जैसे बादलों को छू लेगी। डर के मारे आँखें मुंदी जाती थीं। हम तेजी के साथ उछलते, कगारों के गिरने की आवाजें सुनते, काले-काले पेड़ों का झूमना देखते चले जाते थे। आबादी पीछे छूट गई, देवताओं की बस्ती स भी आगे निकल गये। एकाएक मोहिनी चौंककर उठ खड़ी हुई और बोली-अभी है! अभी है! देखो वह जा रहा है।

मैंने आंख उठाकर देखा, वह दिया ज्यों का त्यों हिलता-भचलता चला जाता था।

उस दिये को देखते हम बहुत दूर निकल गये। मोहिनी ने यह राग अलापना शुरू किया—

मैं साजन से मिलन चली

कैसा तड़पा देनेवाला गीत था और कैसी दर्दभरी रसीली आवाज़। प्रेम और आंसुओं में डूबी हुई। मोहक गीत में कल्पनाओं को जगाने की बड़ी शक्ति होती है। वह मनुष्य को भौतिक संसार से उठाकर कल्पना-लोक में पहुंचा देता है। मेरे मन की आंखों में उस वक्त नदी की पुरशोर लहरें, नदी किनारे की झूमती हुई डालियाँ, सनसनाती हुई हवा सबने जैसे रूप धर लिया था और सब की सब तेजी से कदम उठाये चली जाती थीं, अपने साजन से मिलने के लिए। उत्कंठा और प्रेम से झूमती हुई एक युवती की धुंधली सपने-जैसी तस्वीर हवा में, लहरों में और पेड़ों के झुरमुट में चली जाती दिखाई देती और कहती थी—साजन से मिलने के लिए! इस गीत ने सारे दृश्य पर उत्कंठा का जादू फूंक दिया।

मैं साजन से मिलन चली

साजन बसत कौन सी नगरी मैं बौरी ना जानूं

ना मोहे आस मिलन की उससे ऐसी प्रीत भली

मैं साजन से मिलन चली