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गुप्त धन
 


मोहिनी खामोश हुई तो चारों तरफ़ सन्नाटा छाया हुआ था और उस सन्नाटे में एक बहुत मद्धिम, रसीला स्वप्निल स्वर क्षितिज के उस पार से या नदी के नीचे से या हवा के झोंकों के साथ आता हुआ मन के कानों को सुनाई देता था।

मैं साजन मिलन चली

मैं इस गीत से इतना प्रभावित हुआ कि जरा देर के लिए मुझे खयाल न रहा कि कहां हूँ और कहां जा रहा हूँ। दिल और दिमाग़ में वही राग गूंज रहा था। अचानक मोहिनी ने कहा—उस दिये को देखो। मैंने दिये की तरफ़ देखा। उसकी रोशनी मंद हो गई थी और आयु की पूंजी खत्म हो चली थी। आखिर वह एक बार जरा भभका और बुझ गया। जिस तरह पानी की बूंद नदी में गिरकर गायब हो जाती है, उसी तरह अंधेरे के फैलाव में उस दिये की हस्ती गायब हो गयी! मोहिनी ने धीमे से कहा, अब नहीं दिखाई देता ! बुझ गया! यह कहकर उसने एक ठण्डी सांस ली। दर्द उमड़ आया। आंसुओं से गला फँस गया, जबान से सिर्फ इतना निकला, क्या यही उसकी आखिरी मंजिल थी? और आंखों से आंसू गिरने लगे।

मेरी आंखों के सामने से पर्दा-सा हट गया। भोहिनी की बेचैनी और उल्कंठा, अधीरता और उदासी का रहस्य समझ में आ गया और बरबस मेरी आंखों से भी आंसू की चंद बूंदें टपक पड़ीं। क्या उस शोर-भरे, खतरनाक, तूफ़ानी सफ़र की यही आखिरी मंजिल थी?

दूसरे दिन मोहिनी उठी तो उसका चेहरा पीला था। उसे रात भर नींद नहीं आई थी। वह कवि-स्वभाव' की स्त्री थी। रात की इस घटना ने उसके दर्द-भरे भावुक हृदय पर बहुत असर पैदा किया था। हँसी उसके होठों पर यूं ही बहुत कम आती थी, हां चेहरा खिला रहता था। आज से वह हँसमुखपन भी बिदा हो गया, हरदम चेहरे पर एक उदासी-सी छायी रहती और बातें ऐसी जिनसे हृदय छलनी होता था और रोना आता था। मैं उसके दिल को इन खयालों से दूर रखने के लिए कई बार हंसानेवाले किस्से लाया मगर उसने उन्हें खोलकर भी न देखा। हां, जब मैं घर पर न होता तो वह कवि की रचनायें देखा करती मगर इसलिए नहीं कि उसके पढ़ने से कोई आनंद मिलताथा वल्कि इसलिए कि उसे रोने के लिए खयाल मिल जाता था और वह कवितायें जो उस जमाने में उसने लिखीं दिल को पिघला देनेवाले दर्द-भरे गीत हैं। कौन ऐसा व्यक्ति है जो इन्हें पढ़कर अपने आंसू रोक लेगा। वह कभी-कभी अपनी कवितायें मुझे सुनाती और जव मैं दर्द में डूबकर उनकी प्रशंसा करता तो