पर रखे। मेरे घर में ऐसी छत्तीसियों के लिए जगह नहीं है और अगर तुम बीच में बोले, तो फिर
या तो तुम्हीं रहोगे, या मैं ही रहूंगी।
होरी बोला- तुझसे बना नहीं। उसे घर में आने ही न देना चाहिए था।
'सब कुछ कह के हार गई। टलती ही नहीं। धरना दिए बैठी है।'
'अच्छा चल, देखूं कैसे नहीं उठती, घसीटकर बाहर निकाल दूंगा।'
‘दाढ़ीजार भोला सब कुछ देख रहा था, पर चुप्पी साधे बैठा रहा। बाप भी ऐसे बेहया होते हैं।'
'वह क्या जानता था, इनके बीच क्या खिचड़ी पक रही है।'
'जानता क्यों नहीं था? गोबर दिन-रात घेरे रहता था तो क्या उसकी आंखें फूट गईं थीं। सोचना चाहिए था न कि यहां क्यों दौड़-दौड़ आता है।'
'चल, मैं झुनिया से पूछता हूं न ।'
दोनों मंडै़या से निकलकर गांव की ओर चले। होरी ने कहा-पांच घड़ी के ऊपर रात गई होगी।
धनिया बोली-हां, और क्या, मगर कैसा सोता पड़ गया है कोई चोर आए, तो सारे गांव को मूस ले जाय।
'चोर ऐसे गांव में नहीं आते, धनियों के घर जाते हैं।'
धनिया ने ठिठककर होरी का हाथ पकड़ लिया और बोली-देखो, हल्ला न मचाना, नहीं सारा गांव जाग उठेगा और बात फैल जायगी।
होरी ने कठोर स्वर में कहा-मैं यह कुछ नहीं जानता। हाथ पकड़कर घसीट लाऊंगा और गांव के बाहर कर दूंगा। बात तो एक दिन खुलनी ही है, फिर आज ही क्यों न खुल जाय? वह मेरे घर आई क्यों? जाय जहां गोबर है। उसके साथ कुकरम किया, तो क्या हमसे पूछकर किया था?
धनिया ने फिर उसका हाथ पकड़ा और धीरे-से बोली-तुम उसका हाथ पकड़ोगे तो वह चिल्लाएगी।
'तो चिल्लाया करे।'
'मुदा इतनी रात गए, अंधेरे सन्नाटे रात में जायगी कहां, यह तो सोचो।'
'जाय जहां उसके सगे हों। हमारे घर में उसका क्या रखा है?'
'हां, लेकिन इतनी रात गए, घर से निकालना उचित नहीं। पांव भारी है, कहीं डरडरा जाय, तो और आफत हो। ऐसी दसा में कुछ करते-धरते भी तो नहीं बनता।'
'हमें क्या करना है, मरे या जिए। जहां चाहे जाय। क्यों अपने मुंह में कालिख लगा?ऊं? मैं तो गोबर को भी निकाल बाहर करूंगा।'
धनिया ने गंभीर चिंता से कहा-कालिख जो लगनी थी, वह तो अब लग चुकी। वह अब जीते-जी नहीं छूट सकती। गोबर ने नौका डुबा दी।
'गोबर ने नहीं, डुवाई इसी ने। वह तो बच्चा था। इसके पंजे में आ गया।'
'किसी ने डुबाई, अब तो डूब गई।'
दोनों द्वार के सामने पहुंच गए। सहसा घनिया ने होरी के गले में हाथ डालकर कहा-देखो तुम्हें मेरी सौंह, उस पर हाथ न उठाना। वह तो आप ही रो रही है। भाग की खोटी न होती, तो