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134 : प्रेमचंद रचनावली-6
 


कर रहे थे, उनका सारा ध्यान मैदान की ओर था। खिलाड़ियों के आघात-प्रतिघात, उछल-कूद, धर-पकड़ और उनके मरने-जीने में सभी तन्मय हो रहे थे। कभी चारों तरफ से कहकहे पड़ते, कभी कोई अन्याय या धाँधली देखकर लोग 'छोड़ दो, छोड़ दो' का गुल मचाते, कुछ लोग तैश में आकर पाली की तरफ दौड़ते, लेकिन जो थोड़े-से सज्जन शामियाने में ऊँचे दरजे के टिकट लेकर बैठे थे, उन्हें इस खेल में विशेष आनन्द न मिल रहा था। वे इससे अधिक महत्व की बातें कर रहे थे।

खन्ना ने जिंजर का ग्लास खाली करके सिगार सुलगाया और राय साहब से बोले-मैंने आप से कह दिया, बैंक इससे कम सूद पर किसी तरह राजी न होगा और यह रिआयत भी मैंने आपके साथ की है, क्योंकि आपके साथ घर का मुआमला है।

रायसाहब ने मूंछों में मुस्कराहट को लपेटकर कहा-आपकी नीति में घर वालों को ही उलटे छुरे से हलाल करना चाहिए?

'यह आप क्या फरमा रहे हैं?'

'ठीक कह रहा हूं। सूर्यप्रतापसिंह से आपने केवल सात फीसदी लिया है, मुझसे नौ फीसदी मांग रहे हैं और उस पर एहसान भी रखते हैं, क्यों न हो।'

खन्ना ने कहकहा मारा, मानो यह कथन हंसने के ही योग्य था।

’उन शर्तों पर मैं आपसे भी वही सूद ले लूँगा। हमने उनकी जायदाद रेहन रख ली है और शायद यह जायदाद फिर उनके हाथ न जायगी।‘

'मैं भी अपनी कोई जायदाद निकाल दूँगा। नौ परसेंट देने से यह कहीं अच्छा है कि फालतू जायदाद अलग कर दूँ। मेरी जैकसन रोड वाली कोठी आप निकलवा दें। कमीशन ले लीजिएगा।’

’उस कोठी का सुभीते से निकलना जरा मुश्किल है। आप जानते हैं, वह जगह बस्ती से कितनी दूर है, मगर खैर, देखूँगा। आप उसकी कीमत का क्या अंदाजा करते हैं?’

रायसाहब ने एक लाख पच्चीस हजार बताए। पंद्रह बीघे जमीन भी तो है उसके साथ।

खन्ना स्तम्भित हो गये। बोले--आप आज के पन्द्रह साल पहले का स्वप्न देख रहे हैं रायसाहब। आपको मालूम होना चाहिए कि इधर जायदादों के मूल्य में पचास परसेंट की कमी हो गयी है।

रायसाहब ने बुरा मानकर कहा-जी नहीं, पंद्रह साल पहले उसकी कीमत डेढ़ लाख थी।

'मैं खरीददार की तलाश में रहूंगा, मगर मेरा कमीशन पांच प्रतिशत होगा आपसे।'

'औरों से शायद दस प्रतिशत हो क्यों, क्या करोगे इतने रुपये लेकर ?'

'आप जो चाहें दे दीजिएगा। अब तो राजी हुए। शुगर के हिस्से अभी तक आपने न खरीदे? अब बहुत थोड़े-से हिस्से बच रहे हैं। हाथ मलते रह जाइएगा। इंश्योरेंस की पॉलिसी भी आपने न ली। आपमें टाल-मटोल की बुरी आदत है। जब अपने लाभ की बातों का इतना टाल-मटोल है, तब दूसरों को आप लोगों से क्या लाभ हो सकता है। इसी से कहते हैं, रियासत आदमी की अक्ल चर जाती है। मेरा बस चले तो मैं ताल्लुकेदारों की रियासतें जब्त कर लूँ।

मिस्टर तंखा मालती पर जाल फेंक रहे थे। मालती ने साफ कह दिया था कि वह एलेक्शन के झमेले में नहीं पड़ना चाहती, पर तंखा आसानी से हार मानने वाले व्यक्ति न थे। आकर कुहनियों के बल मेज पर टिककर बोले-आप जरा उस मुआमले पर फिर विचार करें। मै कहता