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144 : प्रेमचंद रचनावली-6
 


इसी में है कि जैसे झुनिया को घर में रखा था, वैसे ही घर से निकाल दो, फिर न हम बैल मांगेंगे, न गाय का दाम मांगेंगे। उसने हमारी नाक कटवाई है, तो मैं भी उसे ठोकरें खाते देखना चाहता हूं। वह यहां रानी बनी बैठी रहे, और हम मुंह में कालिख लगाए उसके नाम को रोते रहें, यह मैं नहीं देख सकता। वह मेरी बेटी है, मैंने उसे गोद में खिलाया है, और भगवान् साखी है, मैंने उसे कभी बेटों से कम नहीं समझा, लेकिन आज उसे भीख मांगते और घूर पर दाने चुनते देखकर मेरी छाती सीतल हो जायगी। जब बाप होकर मैंने अपना हिरदा इतना कठोर बना लिया है, तब सोचो, मेरे दिल पर कितनी बड़ी चोट लगी होगी। इस मुंहजली ने सात पुस्त का नाम डुबा दिया। और तुम उसे घर में रखे हुए हो, यह मेरी छाती पर मूंग दलना नहीं तो और क्या है।

घनिया ने जैसे पत्थर की लकीर खींचते हुए कहा-तो महतो, मेरी भी सुन लो। जो बात तुम चाहते हो, वह न होगी। सौ जनम न होगी। दुनिया हमारी जान के साथ है। तुम बैल ही तो ले जाने को कहते हो, ले जाओ, अगर इससे तुम्हारी कटी हुई नाक जुड़ती हो, तो जोड़ लो, पुरखों की आबरू बचती हो, तो बचा लो। झुनिया से बुराई जरूर हुई। जिस दिन उसने मेरे घर में पांव रखा, मैं झाडू लेकर मारने को उठी थी, लेकिन जब उसकी आंखों से झर-झर आंसू बहने लगे, तो मुझे उस पर दया आ गई। तुम अब बूढ़े हो गए महतो। पर आज भी तुम्हें सगाई की धुन सवार है। फिर वह तो अभी बच्चा है।

भोला ने अपील-भरी आंखों से होरी को देखा-सुनते हो होरी इसकी बातें। अब मेरा दोस नहीं। मैं बिना बैल लिए न जाऊंगा।

होरी ने दृढ़ता से कहा-ले जाओ।

'फिर रोना मत कि मेरे बैल खोल ले गए।'

'नहीं रोऊंगा।'

भोला बैलों की पगहिया खोल ही रहा था कि झुनिया चकतियोंदार साड़ी पहने, बच्चे को गोद में लिए, बाहर निकल आई और कंपित स्वर में बोली काका, लो मैं इस घर से निकल जाती हूं और जैसी तुम्हारी मनोकामना है, उसी तरह भीख मांगकर अपना और अपने बच्चे का पेट पालूंगी, और जब भीख भी न मिलेगी, तो कहीं डूब मरूंगी।

भोला खिसियाकर बोला-दूर हो मेरे सामने से। भगवान् न करे, मुझे फिर तेरा मुंह देखना पड़े। कुलच्छिनी, कुल-कलंकनी कहीं की। अब लिए खूब मरना ही उचित है।

झुनिया ने उसकी ओर ताका भी नहीं। उसमें वह क्रोध था, जो अपने को खा जाना चाहता है, जिसमें हिंसा नहीं, आत्मसमर्पण है। धरती इस वक्त मुंह खोलकर उसे निगल लेती, तो वह कितना धन्य मानती। उसने आगे कदम उठाया।

लेकिन वह दो कदम भी न गई थी कि धनिया ने दौड़कर उसे पकड़ लिया और हिंसा भरे स्नेह से बोली-तू कहां जाती है बहू, चल घर में। यह तेरा घर है, हमारे जीते भी और हमारे मरने के पीछे भी। डूब मरे वह, जिसे अपनी संतान से बैर हो। इस भले आदमी को मुंह से ऐसी बात कहते लाज नहीं आती। मुझ पर धौंस जमाता है नीच। ले जा, बैलों का रकत पी....

झुनिया रोती हुई बोली-अम्मां, जब अपना बाप हो के मुझे धिक्कार रहा है, तो मुझे डूब ही मरने दो। मुझ अभागिनी के कारन तो तुम्हें दु:ख ही मिला। जब से आई, तुम्हारा घर मिट्टी