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182 : प्रेमचंद रचनावली-6
 


प्रोत्साहन पाकर वह मतवाली हुई जा रही थी।

उसी नशे में बोली--तो चलिए, मुझे उन के दर्शन करा दीजिए।

मेहता ने बालक के कपोलों में मुंह छिपाकर कहा-वह तो यहीं बैठी हुई हैं।

'कहां, मैं तो नहीं देख रही हूं।'

'मैं उसी देवी से बोल रहा हूं।'

गोविन्दी ने जोर से कहकहा मारा-आपने आज मुझे बनाने की ठान ली, क्यों?

मेहता ने श्रद्धानत होकर कहा-देवीजी, आप मेरे साथ अन्याय कर रही हैं, और मुझसे ज्यादा अपने साथ। संसार में ऐसे बहुत कम प्राणी हैं, जिनके प्रति मेरे मन में श्रद्धा हो। उन्हीं में एक आप हैं। आपका धैर्य और त्याग और शील और प्रेम अनुपम है। मैं अपने जीवन में सबसे बडे़ सुख की जो कल्पना कर सकता हूं, वह आप जैसी किसी देवी के चरणों की सेवा है। जिस नारीत्व को मैं आदर्श मानता हूं, आप उसकी सजीव प्रतिमा हैं।

गोविन्दी की आँखों से आनन्द के आंसू निकल पड़े। इस श्रद्धा-कवच को धारण करके वह किस विपत्ति का सामना न करेगी। उसके रोम-रोम में जैसे मृदु-संगीत की ध्वनि निकल पड़ी। उसने अपने रमणीत्व का उल्लास मन में दबाकर कहा--आप दार्शनिक क्यों हुए मेहताजी? आपको तो कवि होना चाहिए था।

मेहता सरलता से हँसकर बोले--क्या आप समझती हैं, बिना दार्शनिक हुए ही कोई कवि हो सकता है? दर्शन तो केवल बीच की मंजिल है।

'तो अभी आप कवित्व के रास्ते में हैं, लेकिन आप यह भी जानते हैं, कवि को संसार में कभी सुख नहीं मिलता?'

'जिसे संसार दुःख कहता है, वहां कवि के लिए सुख है। धन और ऐश्वर्य, रूप और बल, विद्या और बुद्धि, ये विभूतियां संसार को चाहे कितना ही मोहित कर लें, कवि के लिए यहां जरा भी आकर्षण नहीं है, उसके मोद और आकर्षण की वस्तु तो बुझी हुई आशाएं और मिटी हुई स्मृतियां और टूटे हुए हृदय के आंसू हैं। जिस दिन इन विभूतियों में उसका प्रेम न रहेगा, उस दिन वह कवि न रहेगा। दर्शन जीवन के इन रहस्यों से केवल विनोद करता है, कवि उनमें लय हो जाता है। मैंने आपकी दो-चार कविताएँ पढ़ी हैं और उनमें जितनी पुलक, जितना कम्पन, जितनी मधुर व्यथा, जितना रुलाने वाला उन्माद पाया है, वह मैं ही जानता हूं। प्रकृति ने हमारे साथ कितना बड़ा अन्याय किया है कि आप-जैसी कोई दूसरी देवी नहीं बनाई।

गोविन्दी ने हसरत भरे स्वर में कहा--नहीं मेहता जी, यह आपका भ्रम है। ऐसी नारियां यहां आपको गली-गली में मिलेंगी और मैं तो उन सबसे गई-बीती हूं। जो स्त्री अपने पुरुष को प्रसन्न न रख सके, अपने को उसके मन की न बना सके, वह भी कोई स्त्री है। मैं तो कभी-कभी सोचती हूं कि मालती से यह कला सीखूं। जहां मैं असफल हूं, वहाँ वह सफल है। मैं अपने को भी अपना नहीं बना सकती, वह दूसरों को भी अपना बना लेती है। क्या यह उसके लिए श्रेय की बात नहीं?

मेहता ने मुंह बनाकर कहा--शराब अगर लोगों को पागल कर देती है, तो इसलिए उसे क्या पानी से अच्छा समझा जाय, जो प्यास बुझाता है, जिलाता है, और शान्त करता है?

गोविन्दी ने विनोद की शरण लेकर कहा--कुछ भी हो, मैं तो यह देखती हूं कि पानी