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पृष्ठ:गोदान.pdf/२८४

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284 : प्रेमचंद रचनावली-6
 


'डर किस बात का, जब तुम साथ हो।'

'सच कहती हो?'

अब तक, मैंने बगैर किसी की सहायता के बाधाओं को जीता है। अब तो तुम्हारे संग हूं।

दोनों उस झाऊ के तख्ते पर बैठे और मेहता ने झाऊ के एक डंडे से ही उसे खेना शुरू किया। तख्ता डगमगाता हुआ पानी में चला।

मालती ने मन को इस तख्ते से हटाने के लिए पूछा-तुम हो हमेशा शहरों में रहे, गांव के जीवन का तुम्हें कैसे अभ्यास हो गया? मैं तो ऐसा तख्ता कभी न बना सकती।

मेहता ने उसे अनुरक्त नेत्रों से देखकर कहा-शायद यह मेरे पिछले जन्म का संस्कार है। प्रकृति से स्पर्श होते ही जैसे मुझमें नया जीवन-सा आ जाता है, नस-नस में स्फूर्ति दौड़ने लगती है। एक-एक पक्षी, एक-एक पशु, जैसे मुझे आनंद का निमंत्रण देता हुआ जान पड़ता है, मानो भूले हुए सुखों की याद दिला रहा हो। यह आनंद मुझे और कहीं नहीं मिलता मालती, सवप्न के रुलानेवाले स्वरों में भी नहीं, दर्शन की ऊंची उड़ानों में भी नहीं। जैसे ये सब मेरे अपने सगे हों, प्रकृति के बीच आकर मैं जैसे अपने-आपको पा जाता हूं, जैसे पक्षी अपने घोंसले में आ जाए।

तख्ता डगमगाता, कभी तिरछा, कभी सीधा, कभी चक्कर खाता हुआ चला जा रहा था।

सहसा मालती ने कातर-कंठ से पूछा-और मैं तुम्हारे जीवन में कभी नहीं आती?

मेहता ने उसका हाथ पकड़कर कहा-आती हो, बार-बार आती हो, सुगंध के एक झौंके की तरह, कल्पना की एक छाया की तरह और फिर अदृश्य हो जाती हो। दौड़ता हूँ कि तुम्हें करपाश में बांध लूं पर हाथ खुले रह जाते हैं। और तुम गायब हो जाती हो।

मालती ने उन्माद की दशा में कहा-लेकिन तुमने इसका कारण भी सोचा, समझना चाहा?

'हां मालती, बहुत सोचा, बार- बार सोचा।'

'तो क्या मालूम हुआ?'

'यही कि मैं जिस आधार पर जीवन का भवन खड़ा करना चाहता हूं, वह अस्थिर है। यह कोई विशाल भवन नहीं है, केवल एक छोटी-सी शांत कुटिया है, लेकिन उसके लिए भी तो कोई स्थिर आधार चाहिए।'

मालती ने अपना हाथ छुड़ाकर जैसे मान करते हुए कहा-यह झूठा आक्षेप है। तुमने हमेशा मुझे परीक्षा की आंखों देखा, कभी प्रेम की आंखों से नहीं। क्या तुम इतना भी नहीं जानते कि नारी परीक्षा नहीं चाहती, प्रेम चाहती है। परीक्षा गुणों को अवगुण, सुंदर को असुंदर बनाने वाली चीज है, प्रेम अवगुणों को गुण बनाता है, असुंदर को सुंदर। मैंने तुमसे प्रेम किया, मैं कल्पना ही नहीं कर सकती कि तुममें काई बुराई भी है, मगर तुमने मेरी परीक्षा की और तुम मुझे अस्थिर, चंचल और जाने क्या-क्या समझकर मुझसे हमेशा दूर भागते रहे। नहीं, मैं जो कुछ कहना चाहती हूं, वह मुझे कह लेने दो। मैं क्यों अस्थिर और चंचल हूं? इसलिए कि मुझे वह प्रेम नहीं मिला जो मुझे स्थिर और अचंचल बनाता। अगर तुमने मेरे सामने उसी तरह आत्मसमर्पण किया होता जैसे मैंने तुम्हारे सामने किया है, तो तुम आज मुझ पर यह आक्षेप न रखते।

मेहता ने मालती के मान का आनंद उठाते हुए कहा-तुमने मेरी परीक्षा कभी नहीं की? सच कहती हो?

'कभी नहीं?'

'तो तुमने गलती की।'