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गोदान : 287
 


जीवन की सार्थकता का ज्ञान हो। मेहता के बुद्धिबल और तेजिस्वता ने उसके ऊपर अपनी मुहर लगा दी और तब से वह अपना संस्कार करती चली जाती थी। जिस प्रेरक शक्ति की उसे जरूरत थी, वह मिल गई थी और अज्ञात रूप से उसे गति और शक्ति दे रही थी। जीवन का नया आदर्श जो उसके सामने आ गया था, वह अपने को उसके समीप पहुंचाने की चेष्टा करती हुई और सफलता का अनुभव करती हुई उस दिन की कल्पना कर रही थी, जब वह और मेहता एकात्म हो जायंगे और यह कल्पना उसे और भी दृढ़ और निष्ठावान बना रही थी।

मगर आज जब मेहता ने उसकी आशाओं को द्वार तक लाकर प्रेम का वह आदर्श उसके सामने रखा, जिसमें प्रेम को आत्मा और समर्पण के क्षेत्र से गिराकर भौतिक धरातल तक पहुंचा दिया गया था, जहां संदेह और ईर्ष्या और भोग का राज है, तब उसकी परिष्कृत बुद्धि आहत हो उठी। और मेहता से जो उसे श्रद्धा थी, उसे एक धक्का-सा लगा, मानो कोई शिष्य अपने गुरु को कोई नीच कर्म करते देख ले। उसने देखा, मेहता की बुद्धि-प्रखरता प्रेमत्व को पशुता की ओर खींचे लिये जाती है और उसके देवत्व की ओर से आंखें बन्द किए लेती है, और यह देखकर उसका दिल बैठ गया।

मेहता ने कुछ लज्जित होकर कहा-आओ, कुछ देर और बैठें।

मालती बोली-नहीं, अब लौटना चाहिए। देर हो रही है।

इकतीस


रायसाहब का सितारा बुलंद था। उनके तीनों मंसूबे पूरे हो गए थे। कन्या की शादी धूम-धाम से हो गई थी, मुकदमा जीत गए थे और निर्वाचन में सफल ही न हुए थे, होम मेम्बर भी हो गए थे। चारों ओर से बधाइयां मिल रही थीं। तारों का तांता लगा हुआ था। इस मुकदमे को जीतकर उन्होंने ताल्लुकेदारों की प्रथम श्रेणी में स्थान प्राप्त कर लिया था। सम्मान तो उनका पहले भी किसी से कम न था, मगर अब तो उसकी जड़ और भी गहरी और मजबूत हो गई थी। सामयिक पत्रों में उनके चित्र और चरित्र दनादन निकल रहे थे। कर्ज की मात्रा बहुत बढ़ गई थी, मगर अब रायसाहब को इसकी परवाह न थी। वह इस नई मिलकियत का एक छोटा-सा टुकड़ा बेचकर कर्ज से मुक्त हो सकते थे। सुख की जो ऊंची-से-ऊंची कल्पना उन्होंने की थी, उससे कहीं ऊंचे जा पहुंचे थे। अभी तक उनका बंगला केवल लखनऊ में था। अब नैनीताल, मंसूरी और शिमला-तीनों स्थानों में एक-एक बंगला बनवाना लाजिम हो गया। अब उन्हें यह शोभा नहीं देता कि इन स्थानों में जाएं, तो होटलों में या किसी दूसरे राजा के बंगले में ठहरें। जब सूर्यप्रतापसिंह के बंगले इन सभी स्थानों में थे, तो रायसाहब के लिए यह बड़ी लज्जा की बात थी कि उनके बंगले न हों। संयोग से बंगले बनवाने की जहमत न उठानी पड़ी। बने-बनाए बंगले सस्ते दामों में मिल गए। हर एक बंगले के लिए माली, चौकीदार, कारिन्दा, खानसामा आदि भी रख लिए गए थे। और सबसे बड़े सौभाग्य की बात यह थी कि अबकी हिज मैजेस्टी के जन्मदिन के अवसर पर उन्हें राजा की पदवी भी मिल गई। अब उनकी महत्वाकांक्षा सम्पूर्ण रूप से सन्तुष्ट हो गई। उस दिन खूब जश्न मनाया