—तुम्हारे प्रेम पर मेरा ही अधिकार रहेगा।
—स्त्रियां तो पुरुषों से ऐसी शर्त कभी न मनवा सकीं?
—यह उनकी दुर्बलता थी। ईश्वर ने तो उन्हें पुरुषों पर शासन करने के लिए सभी अस्त्र दे दिये थे।
संधि हो जाने पर भी पुष्पा का मन आश्वस्त न हुआ। सन्तकुमार का स्वभाव वह जानती थी। स्त्री पर शासन करने का जो संस्कार है वह इतनी जल्द कैसे बदल सकता है। ऊपर की बातों में सन्तकुमार उसे अपने बराबर का स्थान देते थे। लेकिन इसमें एक प्रकार का एहसान छिपा होता था। महत्त्व की बातों में वह लगाम अपने हाथ में रखते थे। ऐसा आदमी यकायक अपना अधिकार त्यागने पर तैयार हो जाय, इसमें कोई अवश्य रहस्य है।
बोली—नारियों ने उन शस्त्रों से अपनी रक्षा नहीं की, पुरुषों ही की रक्षा करती रहीं। यहां तक कि उनमें अपनी रक्षा करने की सामर्थ्य ही नहीं रही।
सन्तकुमार ने मुग्ध भाव से कहा—यही भाव मेरे मन में कई बार आया है पुष्पा, और इसमें कोई संदेह नहीं कि अगर स्त्री ने पुरुष की रक्षा न की होती तो आज दुनिया वीरान हो गई होती। उसका सारा जीवन तप और साधना का जीवन है।
तब उसने उससे अपने मंसूबे कह सुनाये। वह उन महात्माओं से अपनी गौरूसी जायदाद वापस लेना चाहता है, अगर पुष्पा अपने पिता से जिक्र कर और दस हजार रुपये भी दिला दे तो सन्तकुमार को दो लाख की जायदाद मिल सकती है। सिर्फ दस हजार। इतने रुपये के बगैर उसके हाथ से दो लाख की जायदाद निकली जाती है।
पुष्पा ने कहा—मगर वह जायदाद तो बिक चुकी है।
सन्तकुमार ने सिर हिलाय। बिक नहीं चुकी है, लुट चुकी है। जो जमीन लाख-दो लाख में भी सस्ती है, वह दस हजार में कूड़ा हो गई। कोई भी समझदार आदमी ऐसा गच्चा नहीं खा सकता और अगर खा जाय तो वह अपने होश हवास में नहीं है। दादा गृहस्थी में कुशल नहीं रहे। वह तो कल्पनाओं की दुनिया में रहते थे। बदमाशों ने उनको चक्मा दिया और जायदाद निकलवा दी। मेरा धर्म है कि मैं वह जायदाद वापस लूँ और तुम चाहो तो सब कुछ हो सकता हैं। डॉक्टर साहब के लिए दस हजार का इन्तजाम कर देना कोई ने बड़ी बात नहीं है।
पुष्पा एक मिनट तक विचार में डूबी रही। फिर संदेहभाव से बोली—मुझे तो आशा नहीं कि दादा के पास इतने रुपये फालतू हों।
—जरा कहो तो।
—कहूं कैसे—क्या मैं उनका हाल जानती नहीं? उनजी डॉक्टरी अच्छी चलती है, पर उनके खर्च भी तो हैं। बीरू के लिए हर महीने पांच सौ रूपये इंग्लैंड भेजने पड़ते हैं। तिलोत्तमा की पढ़ाई का खर्च भी कुछ कम नहीं। संचय करने का उनकी आदत नहीं है। मैं उन्हें संकट में नहीं डालना चाहती।
—मैं उधार मांगता हूं। खैरात नहीं।
—जहां इतना घनिष्ठ संबंध है वहां उधार के माने खैरात के सिवा और कुछ नहीं। तुम रुपये न दे सके तो वह तुम्हारा क्या बना लेंगे? अदालत जा नहीं सकते, दुनिया हँसेगी, पंचायत कर नहीं सकते, लोग ताने देंगे।
सन्तकुमार ने तीखेपन से कहा—तुमने यह कैसे समझ लिया कि मैं रूपये न दे सकूँगा?