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80 : प्रेमचंद रचनावली-6
 


का कोई भाग ऐसा नहीं, जिसे सुंदर या सुघड़ कहा जा सके। लेकिन उस स्वच्छ, निर्मल जलवायु ने उसके कालेपन में ऐसा लावण्य भर दिया था और प्रकृति की गोद में पलकर उसके अंग इतने सुडौल, सुगठित और स्वच्छंद हो गए थे कि यौवन का चित्र खीचने के लिए उससे सुंदर कोई रूप न मिलता। उसका सबल स्वास्थ्य जैसे मेहता के मन में बल और तेज भर रहा था।

मेहता नेउ से धन्यवाद देते हुए कहा-तुम बड़े मौके से पहुंच गईं, नहीं मुझे न जाने कितनी दूर तैरना पड़ता।

युवती ने प्रसन्नता से कहा-मैंने तुम्हें तैरते आते देखा, तो दौड़ी। सिकार खेलने आए होंगे?'

'हां, आए तो शिकार ही खेलने, मगर दोपहर हो गया और यही चिड़िया मिली है।'

'तेंदुआ मारना चाहो, तो मैं उसका ठौर दिखा दूं। रात को यहां रोज पानी पीने आता है। कभी-कभी दोपहर में भी आ जाता है।'

फिर जरा सकुचाकर सिर झुकाए बोली-उसकी खाल हमें देनी पड़ेगी। चलो, मेरे द्वार पर। वहां पीपल की छाया है। यहां धूप में कब तक खड़े रहोगे? कपड़े भी तो गीले हो गए हैं।

मेहता ने उसकी देह में चिपकी हुई गीली साड़ी की ओर देखकर कहा-तुम्हारे कपड़े भी तो गीले हैं।

उसने लापरवाही से कहा-ऊंह हमारा क्या, हम तो जंगल के हैं। दिन-दिन भर धूप और पानी में खड़े रहते हैं, तुम थोड़े ही रह सकते हो।

लड़की कितनी समझदार है और बिल्कुल गंवार।

'तुम खाल लेकर क्या करोगी?'

'हमारे दादा बाजार में बेचते हैं। यही तो हमारा काम है।'

'लेकिन दोपहरी यहां काटें, तुम खिलाओगी क्या?'

युवती ने लजाते हुए कहा-तुम्हारे खाने लायक हमारे घर में क्या है। मक्के की रोटिया खाओ, तो धरी हैं। चिड़िये का सालन पका दूंगी। तुम बताते जाना, जैसे बनाना हो। थोड़ा-सा। दूध भी है। हमारी गैया को एक बार तेंदुए ने घेरा था। उसे सींगों से भगा कर भाग आई, तब से तेंदुआ उससे डरता है।

'लेकिन मैं अकेला नहीं हूं। मेरे साथ एक औरत भी है।'

'तुम्हारी घरवाली होगी?'

'नहीं, घरवाली तो अभी नहीं है, जान-पहचान की है।'

'तो मैं दौड़कर उनको बुला लाती हूं। तुम चलकर छांह में बैठो।'

'नहीं-नहीं, मैं बुला लाता हूं।'

'तुम थक गए होगे। शहर के रहैया, जंगल में काहे आते होंगे। हम तो जंगली आदमी हैं। किनारे ही तो खड़ी होंगी।'

जब तक मेहता कुछ बोलें, वह हवा हो गई। मेहता ऊपर चढ़कर पीपल की छांह में बैठे, तो इस स्वच्छंद जीवन से उनके मन में अनुराग उत्पन्न हुआ। सामने की पर्वत-माला दर्शन-तत्त्व की भांति अगम्य और अनंत फैली हुई, मानो ज्ञान का विस्तार कर रही हो, मानों आत्मा उस ज्ञान को, उस प्रकाश को, उस अगम्यता को, उसके प्रत्यक्ष विराट रूप में देख रही हो।