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84: प्रेमचंद रचनावली-6
 


में मालती के पास लाई। मालती ने कटोरे के भद्देपन पर मुंह बनाया, लेकिन दूध त्याग न सकी। मेहता झोंपड़ी के द्वार पर बैठकर एक थाली में मांस और रोटियां खाने लगे। युवती खड़ी पंखा झल रही थी।

मालती ने युवती से कहा उन्हें खाने दो। कहीं भागे नहीं जाते हैं। तू जाकर गाड़ी ला।

युवती ने मालती की ओर एक बार सवाल की आंखों से देखा, यह क्या चाहती हैं। इनका आशय क्या है? उसे मालती के चेहरे पर रोगियों की-सी नम्रता और कृतज्ञता और याचना न दिखाई दी। उसकी जगह अभिमान और प्रमाद की झलक थी। गंवारिन मनोभावों को पहचानने में चतुर थी। बोली-मैं किसी की लौंडी नहीं हूं बाईजी। तुम बड़ी हो, अपने घर की बड़ी हो। मैं तुमसे कुछ मांगने तो नहीं जाती। मैं गाड़ी लेने न जाऊंगी।

मालती ने डांटा-अच्छा। तूने गुस्ताखी पर कमर बांधी। बता, तू किसके इलाके में रहती है।

'यह रायसाहब का इलाका है।'

'तो तुझे उन्हीं रायसाहब के हाथों हंटरों से पिटवाऊंगी।'

'मुझे पिटवाने से तुम्हें सुख मिले तो पिटवा लेना बाईजी। कोई रानी-महारानी थोड़ी हूं कि लस्कर भेजनी पड़ेगी।'

मेहता ने दो-चार कौर निगले थे कि मालती की यह बातें सुनीं। कौर कंठ में अटक गया। जल्दी से हाथ धोया और बोले-वह नहीं जायगी। मैं जा रहा हूं।

मालती भी खड़ी हो गई-उसे जाना पड़ेगा।

मेहता ने अंग्रेजी में कहा-उसका अपमान करके तुम अपना सम्मान बढ़ा नहीं रही हो मालती।

मालती ने फटकार बताई-ऐसी ही लौंडिया मर्दों को पसंद आती हैं, जिनमें और कोई गुण हो या न हो, उनकी टहल दौड़-दौड़कर प्रसन्न मन से करें और अपना भाग्य सराहें कि इस पुरुष ने मुझसे यह काम करने को तो कहा। वह देवियां हैं, शक्तियां हैं, विभूतियां हैं। मैं समझती थी, वह पुरुषत्व तुममें कम-से-कम नहीं है, लेकिन अंदर से, संस्कारों से, तुम भी वही बर्बर हो।

मेहता मनोविज्ञान के पंडित थे। मालती के मनोरहस्यों को समझ रहे थे। ईर्ष्या का ऐसा अनोखा उदाहरण उन्हें कभी न मिला था। उस रमणी में, जो इतनी मृदु-स्वभाव, इतनी उदार, इतनी प्रसन्ममुख थी, ईर्ष्या की ऐसी प्रचंड ज्वाला।

बोले-कुछ भी कहो, मैं उसे न जाने दूँगा। उसकी सेवाओं और कृपाओं का यह पुरस्कार देकर मैं अपनी नजरों में नीच नहीं बन सकता।

मेहता के स्वर में कुछ ऐसा तेज था कि मालती धीरे-से उठी और चलने को तैयार हो गई। उसने जलकर कहा-अच्छा, तो मैं ही जाती हूं, तुम उसके चरणों की पूजा करके पीछे आना।

मालती दो-तीन कदम चली गई, तो मेहता ने युवती से कहा-अब मुझे आज्ञा दो बहन। तुम्हारा यह नेह, तुम्हारी यह निःस्वार्थ सेवा हमेशा याद रहेगी।

युवती ने दोनों हाथों से सजल नेत्र होकर उन्हें प्रणाम किया और झोंपड़ी के अंदर चली गई।