पृष्ठ:गोरख-बानी.djvu/१००

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

93 गोरख-बानी] जीव सीव संगेवासा । बधि न पाइबा रुध्र मासा ! हंस घात न करिबा गोतं । कथंत गोरष निहारि पोतं ॥ २२७ ॥ जीव क्या हतिये रे प्यंड धारी । मारि लै पंचभू म्रगला । चरै थारी बुधि बाड़ी। जोग का मूल है दया दाण । कथंत गोरप मुकत्ति लै मानवा मारि लै रैमन द्रोही । जाकै बप बरण मास नहीं लोही ।। २२८ ।। जिनि मन ग्रास देव दाण । सो मन मारिलै गहि गुरु ग्यांन बाण||२२६ जोगी सो जो राषै जोग । जिभ्या यंद्री न करै भोग। अंजन छोडि निरंजन रहै । ताकू गोरष जोगी कहै ॥ २३० ।। सुनिज माई सुनि४ ज वाप । सुनि निरंजन आपै आप। सुनि४ कै परचै भया सथीर । निहचल जोगी गहर गंभीर ॥२३१॥ 'एक लाप अस्सी हजार पीर पैगम्बर पुकारै ॥२२॥ २२६ ची सयदी इसलिए हटा दी गई है कि उसमें सांप्रदायिक सद्भाव समझा जा सकता जीव और ब्रह्म का एक ही साथ निवास है। इसलिए हत्या करके रक्क मांस का सेवन मत करो। प्राण-घात मत करो। सब को अपने ही गोत्र अथवा कुल का समझो । गोरख कहते हैं, अपने बच्चों ( पोत, पूत, पुत्र) को देखो। (सव प्राणी उन्हीं जैसे हैं । ) ॥ २२७ ॥ हे शरीर धारियो, जीव हत्या क्या करते हो, पांचभौतिक मन-रूप मृग को मारो जो तुम्हारी बुद्धि-रूप बाड़ी को घर रहा हैं। अरे, योग का मूल ही दया-दान है। गोरख कहते हैं कि हे मनुष्य मुक्ति के अर्थ इस द्रोही मन को मारो, जिसके न शरीर है, न मांस है, न रक्त है और न वर्ण है । ॥२२॥ जिस मन ने देव-दानव सब को प्रस लिया है, उसे गुरु के ज्ञान का वाण पकड़ कर मार ॥२२६॥ योगी वह है, जो योग की रक्षा करता है, जिह्वा आदि इन्द्रियों से भोग नहीं करता है । जो माया (अंजन ) को छोड़ कर ब्रह्म (निरंजन ) में लीन हो कर ) रहता है उसी को गोरख जोगी कहता है ॥२३०॥ शून्य ( समाधि-श्रवस्था) हो माता है, वही पिता है, वही स्वयं निरंजन १. (ख) धि । २. (ख) मारीले ।.३. (ख) नीरंजण । ४. (ख) सुनि। -