पृष्ठ:गोरख-बानी.djvu/१०१

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प्रहम है [गोरख-बानी सजी कुलती मेटी भंग । अह निसि राषौ ओजुद बंधि । सरव संजोग आवै हाथि । गुरु रापै निरबाण समाधि ॥२३२॥ अकुच कुचीया विगसिया3 पोहा । सिधि परिजलि उठी लागिया धुवा । कहै गारपनाथ धुवा प्राण । ऐसे पिड का परचा जाणै प्राण ॥२३३॥ अवधू यो मन जात है याही तै सब जाणि । मन मकड़ी का ताग ज्यू उलटि अपुठो आणि ॥ २३४ ॥ जे आसा तो आपदा जे संसा तो सोग। गुर मुपि बिना न भाजसी ( गोरष ) ये दून्यों बड़ रोग ॥२३॥ । शून्य ( समाधि) परिचय प्राप्त होने पर स्थैर्य प्राप्त होता है और योगी गांभीर्य को प्राप्त कर निश्चल हो जाता है ॥२३॥ कुलथी (एक प्रकार की निकृष्ट दाल; यहाँ पर वह सब प्रकार के निःसत्त्व मोटे अन्न की ओर संकेत करता है। ) को छोड़ दो, भांग (की श्रादत) ही मिटा डालो ! रात दिन शरीर को बंधन में (संयत) रक्खो । इस प्रकार सर्दतो भाव से सम्यक योग सिद्ध हो जावेगा। और गुरु कृपा कर निर्वाण समाधि की रक्षा करेगा ॥२३२॥ थकुचित अर्थात् विषयों में बिखरा हुश्रा मन प्रत्याहार के द्वारा सिमट गया है, ईंचित हो गया है । और ब्रह्मरूप माला में पिरोया जाकर जीव-पुष्प खिल उठा । इस प्रकार सिद्धि प्रज्वलित हुई और धुवां उठने लगा । यह धुवां प्राण ही है । (जैसे धूम अग्नि का होना सिद्ध करता है, वैसे ही प्राणों का उपर उठकर मसरंध्र में स्थित होना सिद्धि प्राप्ति का लक्षण है।) शरीर इस प्रकार सिद्ध हो गया है, इसका परिचायक प्राण हो है ॥२३॥ हे अवधन ! यह मन जा रहा है ! इसीसे सब कुछ की उत्पत्ति होती है, यह जान लो । मझली के तार की तरह मन को उलट कर वापिस ले पायो। अपूठी ( पूठौ 'अ' का श्रागम यों ही हो गया है), पीठ की तरफ अर्थात् जहाँ से कोई याया हो, यही उलटे ॥२३॥ जो प्राशा करते हैं उन्हें यापति मेचनी पड़ती है और भी संदेह करते है, उन्हें शोक । ये दोनों (प्राशा, संशय ) बड़े रोग है गुरु के मुख से शिक्षा प्राप्त किये बिना ये मागंगे नहीं ॥२३॥ १. (प) गर । २. (स) प्रोउ । ३. (ख) वीगसीया। ४. (ख) लागीया। , ।