[गोरख-बानी पासि वैठी सोभै नहीं साथि रमाई भुडि' । गोरप कहै असतरी कहा सलह कह मुण्डि ॥ २५१ ॥ जरणा जोगी जुगि जुगि जीवै झरणा मरि मरि जाय । पोजै तन मिलें अविनासी२ अगह अमर पद पाय ॥ २५२ ।। जपतप जोगी संजम सार । बाले कंद्रप कीया छार। येहा जोगी जग मैं जोय । दूजा पेट भरै सब कोय ॥ २५३ ॥ जोगेसर की इहै परछया, सवद विचारथा घेलै । जितना लाइक वासण होवे, तेती तामै मेल्है ॥ २५४ ॥ चापि भरै तौ बासण फुट वारै रहै तौ छीजै। यसत घणेरी बासण बोला कहो गुर क्या कीजै ।। २५५ ।। . मुंडि, भोली । सलइ, सीधी, अदीक्षित, पाखंडरहित । मुंडि, मुंबी हुई, जिसने योग ले लिया हो ॥ २१ ॥ अरणा जोगी, शुक्र को अथवा ब्रह्मानुभूति को पचाने वाला अर्थात् स्थिर करने वाला जोगी जुग जुग जीता है और जो उसे मर जाने देता है, स्थिर नहीं होने देता वह मर जाता है। जो इसी शरीर में अविनाशी को खोजता है वह भग्रहणीय अमर पद को प्राप्त करता है ॥ २५२ ॥ बो जप तप करता है, संयम को सार वस्तु समझता है, वाल्यावस्था में हो जिसने काम को जला कर राख कर दिया है, ऐसे ही को जग में जोगी समझना चाहिए । और तो सब पेट भराई करते हैं ॥ २३ ॥ योगीश्वर की परीक्षा यही है कि वह शब्द का विचार करके व्यवहार करें । शिष्य गण जितने के अधिकारी हो उतना ही ज्ञान उन्हें दे । मेह, टाले, नाये ॥ २५ ॥ बर्तन में खूब ददा कर भरने से यर्तन फूट सकता है, यहुन ठूस करके शिष्य में ज्ञान मरने से यह उसके अनुसार कार्य न कर सके और समस्त मार्ग हो को चोर दे और यदि कुछ याहर रहने दिया जाय तो जितना अंश १. (स) मुंदी-मुटी। २.(ख) अभीनासी । ३. (प) जुग में । ४. (ग) पीचारमा ।
पृष्ठ:गोरख-बानी.djvu/१०५
दिखावट