पृष्ठ:गोरख-बानी.djvu/१२२

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१५ 1 गोरख-बानी] जोग, जुगति सार' तौ भौ तिरिये पारं। कथंत गोरषनाथ विचार २ ॥९॥ मनसा मेरी व्यौपार बांधौ, पवन पुरषि उतपनां । जाग्यौ जोगी अध्यात्म लागौ, काया पाटण मैं जांना ॥ टेक ॥ इकबीस सहंस षटसा आदू, पवन पुरिष जप माली । इला प्यंगुला सुषमन नारी, अहनिसि वह प्रनाली ॥२॥ षटसां पोड़ि कवल दल धारा१२, तहां बसै ब्रह्मचारी। हंस पवन 3 ज फूलन१४ पैठा५, नौ सै नदी पनिहारी१६ ॥२॥ केदारनाथ (शिव, स्वयं परब्रह्म) हैं। यदि योग की सार (तत्त्वमयी, सची) युक्ति प्राप्त हो जाय तो गोरखनाथ (विचार पूर्वक) कहते हैं कि संसार से पार हो जाये। हे मेरी मनसा (इच्छा) तुम अपना व्यापार बाँधो । प्राया पुरुष उत्पन्न हो गया है। अर्थात् मन और पवन का संयोग संभव हो गया है । (इस प्रकार मन पवन के योग अथवा प्राणायाम से) जागा हुआ जोगी अध्यात्म (मात्मा सम्बन्धी प्रयत्न ) में लग गया है। उसे इस शरीर रूपी नगर में प्रवेश करना है। पवन पुरुष अर्थात् बाहर भीतर जाती हुई साँस हो जप को माला है जो प्रति दिन २१,६०० जप करती है। इला, पिंगला और सुषुम्ना की नलियों में पवन घराबर यहता रहता इक बीस "माली=योगियों के अनुसार मनुष्य प्रतिदिन २१,६०० बार साँस लेता है। इन सब साँसों के साथ 'सोऽहं हंसा' का जाए 'अजपा जाप' कहलाता है। जप श्वास क्रिया के द्वारा स्वयं बेखबर हो रहा है। हमें उसकी ओर अपना ध्यान ले जाकर उसे सज्ञान रूप से करना है। पटसां=षदलकमल, स्वाधिष्ठान चक्र । षोड़ि कवलदल =षोडष दल -विशुद्ध चक्र। १. (क) संसार । २. (घ) तिरीए पार । ३. (क) में कयंत नहीं । ४. (घ) विचार । ५. (घ) देवी । ६. (घ) वौपार वाधौ । ७. (घ) जागौ । ८. (घ) काया का पाटण मनां । ९. (घ) यकीस सहस पट सास आदि;। १०. (घ) यला पिंगुला सुषमनि; (घ) नदीयां अहिनिसि वहैं। ११. (घ) षटसास पोडि कंवल । ११. (घ) धीरा । १३. (घ) पवल (? पवन या कवल) १४. (घ) जलि मलण । १५. (घ) पैठा तहां। १६. (घ) पणिहारी। ।