गोरख-बानी] १०१ अवधू जाप जपौ' जपमाली चीन्हौं, जाप3 जप्यां फल होई। अगम जाप जपीला गोरष, चीन्दत५ बिरला कोई ॥ टेक ।। कवल बदन काया करि कंचन, चेतनि करो' जपमाली। अनेक जनम नां पातिग छूटै, जपंत २ गोरष चवाली13 श एक अषीरी'४ एकंकार जपीला'५, सुंनि अस्थूल ६ दोइ ७ वाणीं । प्यंड ब्रह्मांड ८ समि तुलि व्यापीले११, एक अषिरी हम२° गुरमुषि जांणी ।। हे अवधूत-जप माना पहचानो और वह पाप जपो जिससे (वास्तविक ब्रह्मानुभूति रूप ) फल प्राप्त होता हो । जिस अगम्य जप का जाप गोरख ने किया उसे कोई बिरला ही जानता है। कमल (चक्र ) को तो बनायो मुह ( वदन), लाया है सोना ( मनके ) और चैतन्य है जप की माला ( जिस पर मनके गुथे रहते हैं)। गोरख कहते हैं इस प्रकार जप करते हुए अनेक जन्मों के पातक छूटते हैं। (लोग वाचनिक मंत्रों का जाप किया करते हैं। उनमें अक्षरों की अलग अलग संख्या होती है। जैसे द्वादशाक्षर, पोदपाक्षर मंत्र, किंतु गोरखनाथ जिस मंत्र का जप करते हैं उसका बाह्य वाणी से सम्बन्ध नहीं इसी लिये एकाक्षरी द्वयक्षरी से वह दूसरा हो अर्थ लेते हैं। उनके लिए ) शुन्य और स्थूल श्रास्मिक और बाय शब्दमय, श्राभ्यन्तर और वाय) दोनों वाणियों से एकाकार अद्वय परब्रह्म का, जो पिंड और ब्रह्मांड में एक समान व्याप्त है, जप ही एकाक्षरी-मंत्र-जप है। यही एकाक्षरी हमने गुरुमुख से सीखी है। ....." 1 १. (घ) जपौ । २. (घ) वनमाली । ३. (घ) तिने जाप । ४. (घ) में 'अजपा के स्थान पर 'ऐसा जाप जपंता'। ५. (घ) चीन्है । ६. (घ) कंवल । ७. (घ) भई । ८. (घ) कंचनरे अवधू । ६. (घ) चेतन कीया। १०. (घ) जन्म का । ११. (घ) छूटा । १२ (घ) जपै । १३. (घ) चमाली। १४. (ध) अक्षर । १५. (घ) जपीले । १६. (घ) थूल। १७. (घ) दोय। १८, (घ) पिंड ब्रह्मड । १६. (घ) व्यापीला। २०. (घ) एक अक्षर गोरखनाथ। १६
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