१०० [गोरख-बानी सक्ति' रूपी रज आछ सिव रूपी व्यंदः । वारह कला रव आछ सोलह कला चन्द । चारि कला रवि की जे ससि परि आवै तौ सिव सक्ती संमि होवै, अन्त कोई न पावै ॥५॥ एही राजा राम आछ सर्वे अंगे वासा। येही पांचौं तत वाबू सहजि प्रकासा । ये ही पांचौं तत वावू सममि समांनां । बदंत गोरष इम१२ हरि पद जांनां१३ ।६। ॥१२।। (वायु से मन वश होता है ।) मन ही मारता है, मन ही स्वयं मन मारण का साधन है। मन ही तारने वाला है और मन ही तरने वाला । यदि मन स्थिर हो जाय तो त्रैलोक्य तर जाय । मन ही प्रारम्भ में है, मन ही अंत में है और मन ही बीच में है । (अर्थात् मूल रूप में मन शाश्वत् तत्त्व है ।) (बाह्य मन को विवश करने वाले ) विषय विकार भी मन ही के द्वारा छूट सकते हैं। रक्त शक्ति स्वरूप है और विंदु शिव स्वरूप । बारह कलाएं (मुलाधारस्थ अमृत शोपक) सूर्य की हैं और सोलह कलाएँ (सहवारस्थ अमृत सावक) चन्द्रमा की। अभी तो सूर्य की कलाएँ प्रधान है अर्थात शक्ति या माया प्रबल है।) अगर रवि की चार कलाएँ शशि में मिल जाय तो शिव और शक्ति सम हो जायं (और वह परम अनुभूति प्राप्त हो जाय ) जिसका किसी को अन्त न मिले। (सूरज की चार कलाओं तथा बारह कलाओं और चन्द्रमा की सोलह कलात्रों के लिए देखिए आगे वाले 'रोमावती' अन्य का अंतिम अंश ।) यही परमानुभूति-गम्य तत्व राजा राम है । अर्थात श्रात्मा का स्वरूप है) जिसका सय अंगों में निवास है। यही पांचों तत्वों को सहज प्रकाशित करता है। (विना इसके पांचों तत्त्व रह नहीं सकते।) और बोध हो जाने पर इसीमें पांचों तत्व समा जाते हैं । गोरखनाथ कहते हैं कि इस प्रकार ब्रह्म जाना जाता है ॥१२॥ १. (घ) सकति । २. (घ) सुनि । ३. (घ) विंद । ४. (घ) रवि । ५ (घ) मोहे । ६. (घ) क्यारि । ७. (घ) 'जे' नहीं है । ८. (घ) त्यौ। ६. (क) में 'सर्वे के स्थान पर 'अवे (घ) में 'राद...अंगे के स्थान पर 'रामचन्द्र ग्रंगे अंगे। १०.(घ) एही पांच । ११. (घ) सहज । १२. (घ) गोरपनाय।१३.(घ) जांणा !
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