[ गोरख बानी ऊँट सिधाणे जब प्रहयौ, जाइ कैरौ डाली बैठौ । घांग बेटा जनमिएँ , नैणे पुरिष न दीठौ । १ । लाकड़ स्वैर सिल तिर, देपता जग जाइ। ऊट प्रनाती पदि गयो, सुसिल्यो पौली न माइ। २ । गरि मंछा जाल सुसा पाणी मैं दौं लागा। अरहट बह तृसालयां, सूली फाटा भागा।३। गुरु के प्रसाद से इसका शा अर्थात् अनुभव हो गया है। ऊंट (मन) को जब याज ( यम) ने पाप या नाटी प ( जगत ) की शाखा पर बैठ गया। मायाविष्ट होकर गम भागगन के पपकर में पड़कर यम के शासन में या जाता है और दुःखमय जगत् को ही सुग की यस्तु समझने लगता यांम (माया) ने पुरुष (सपा) से संग करना तो दूर रहा नजर से भी देखे यिना पुत्र (ब्रह्मानुभव ) पैदा किया है। जब मायाधीन पुरुप (जीव) माया से अलग कर दिया जाता है तभी उसे अपने पास्तविक स्वरूप का ज्ञान होता है। लबड़ (जो भवसागर के जल से चंचल हो जाते हैं,) डूब जाते है और पत्थर (जो उससे प्रभावित नहीं होते. ) स्थिर रहते हैं। (इस प्रकार) The
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