गोरख-बानी] ११३ एक गाइ नौ बछड़ा, पंच दुहेवा जाइ । एक फूल सोलह करंडियां मालनि मन में हरिष न माइ । ४ । पगां विहून चोरी कीधी, चोरी नैं आणी गाई। मछिंद्र प्रसादै जति गोरष बोल्या, दूझै पणो न ब्याई १५ ॥ २० ॥ गोरष लो गोपलं लो, गगन गाइ दुहि पीवै लो, मही बिरोलि४ अंमी रस पीजै, अनभै लागा जीजै लोपटेक॥ ममिता बिनां माइ मुइ, पिता विनां मूवा छोरू लो। जाति बिहुँना लाल ग्वालिया, अनिस चारै गोरू लो। १। . एक गाय (आत्मा) है जिसके नौ बछड़े ( नवरंध्र ) हैं पर जो उसकी आभ्यास्मिक शक्ति का पान ( हास) करते हैं और पाँच (चंद्रियाँ) उसे दुहने- वाली हैं । अर्थात् शरीर आत्मा की शक्तियों को विकसित नहीं होने देता । परंतु योगाभ्यास से एक फूल ( अमृतानन्द ) प्राप्त हुआ है जो सोलह करंडियों में भर रहा है। अर्थात् सोलह कलाओं वाले चद्रमा में व्याप्त परमानन्ददायक अमृत प्राप्त हुआ है जिससे श्रास्मारूप मालिन के प्रानन्द का ठिकाना न रहा । बिना पैरों के चोरी की (अचल समाधिस्थ हो गये) और गाय को चोरी कर के ले पाये ( ब्रह्मानुभूति प्राप्त की) जो दूसरी बार न बिआई (अर्थात् आवागमन सवंदा के लिए रुक गया।)--मळु दर के प्रसाद से यती गोरख यह कहता है ॥२०॥ गोरखनाथ ग्वाला है । वह आकाश मंडन रूप गाय (ब्रह्मानुभूति ) को दुह कर पाता है। मट्ठे ( निस्सार मायिक वस्तुओं) को पिलो (मय) कर वह (सार रूप) भमृत का पान कर लेता है (अर्थात् सार ग्रहण कर निस्सार का त्याग कर देता है। ) और इस प्रकार अभय से लगा हुआ ( अर्थात् उस ब्रह्मानुभूति से स्पृष्ट होकर जिससे जगत का कोई भय नहीं रह जाता,) जीता | ममरव के चले जाने पर माया भी नष्ट हो गयी है। और पिता ( अहंकार १. (क) जाये । २. संभवतः 'पैणि' ; (घ) में 'प' नहीं है पहले शब्द के साथ मिलाकर 'दूझणि कर दिया गया है । ३. (घ) गिगनि गाय । ४. (घ) महीं बिलोय । ५. (घ) महा रस सांचौ । ६. (घ) अणभै । ७. बिहूंणी माई मरि गई। ८. (घ) बिहुणां । ९. (घ) विहूंणां । है
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