९ गोरख-बानी] ११६ सिष्टि उतपनी वेली' प्रकास, मूल न थी, चढ़ी आकास, उरध गोढ कियौ विसतार, जाण नै3 जोसी करै विचार५ । १। आईसौभील पारधी हाथ नहीं,पाई" व्यंगुलो मुष दांत न काही इयों हयों मृघलौ धुणहीं न तही",घंटा सुर तिहा नाद नाही' 3 ॥२॥ भीलई तिहाँ१४ ताणियौ१५ वाण मन ही मृघलौ वेधियौ प्रमाण हयौ यो मृगली वेधियो वाण १७, धुण ही वाण न थी सर ताण ॥३॥ भीलड़ी मातंगी रांणी१८, मृधली आणी ठाणी ९ ॥ चरण२०विहूँौ मृघलौं आण्यौं 'सीस सींग मुष जाइ२२न जाण्यौ२३४ (मुक्ति रूप मुक्ता) भी इसी बेल पर (लगते) हैं । इसी बेल के प्रकाश (विस्तार से सृष्टि उत्पन्न हुई है। इस बेल का मूल नहीं है ( वास्तव में वह सत्य नहीं मिथ्या है) फिर भी वह श्राकाश तक चढ़ गई है। ऊपर की गोठ (गोस्थान) तक (ब्रह्मरंध्र तक) उसका विस्तार हो गया है (जिससे ब्रह्मानुभूति पर श्रावरण पढ़ गया है।) हे जानने वाले ज्योतिपियो इस बात पर विचार करो। एक ऐसा भील ( श्रात्मा ) शिकारी है, जिसके हाथ नहीं हैं । पाँवों का पंगु है। उसके मुख में कहीं दाँत भी नहीं हैं। (मांस खाने के लिए शिकारी के मुख में दात चाहिए।) उसके पास धनुष (धनुही, धुणही) भी नहीं है। फिर भी उसने मृग (मन) को मार डाला। मृगों को वश में करने के लिए न उसके पास कोई सुर (सुरीला राग) है। और न हाँक के लिए कोई नाद या घंटा धादि का शब्द हो। फिर भी भील ने वाण ताना और इजमा करते ही (मन हो से) मृग को प्रामाणिक रूप से वेध दिया। बाण ने मृग को वेध दिया । वह मारा गया, मारा गया, जो शर उसने ताना था, वह भी वाण नहीं था अर्थात् बिना धनुए १. (घ) उतपनी वेलि । २. (घ) कीयौ विस्तार । ३. (घ) नाणे नैं । ४(घ) जोगी। ५. (घ) करौ विचार । ६, (घ) ऐसौ । ७. (घ) पाव |८. (घ) पिंगुल ६. (घ) 'न काही के स्थान पर 'नाही' १०. (4) इयौ हयौ । ११. (घ) नाही."नाही । १२. (घ) सुरति तहां । १३. (घ) तहां । १४. (प) काहीणी. यौ। १५. (घ) बेधी प्राण । १६. (घ) बंधीयौ। १७. (घ) रांणी । १८. (घ) आणीयौ ठाणी । १६. (घ) चलण । २० (घ) विहुणौ भृघलौ प्राण्यौ । २१. (घ) जाय । २२. (घ) जाण्यौ ।
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