पृष्ठ:गोरख-बानी.djvu/१६०

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गोरख-बानी] १२७ [राग असावरी] ऐसारे उपदेस दायै श्री गोरष राया, जिनि जग चतुर बरन रह लाया ॥ टेक ॥ पढिलै ससंवेद। करिलै विधि नषेद । जाणिलै भेदांनभेद । पूरिलै आसा उमेद । १ । विषमी संधि मंझारी५ । संझया पंचौं बपत्त सारि। रहिबा दसवें दुवारि । सेइबा पद निराकार । २ । जपिलै अजपाजाप । बिचारिले श्राप आप। छुटिला सबै वियाप । लिपै नहीं' ° तहाँ पुनि१ पाप । ३ । अहो निसि समा ध्यान १२ । निरंतर रमेबा राम । कथै गोरषनाथ १४ ग्यांन । पाइया५ परम निधान ।४।३३।। श्री गोरखराय जिन्होंने चारों वर्गों को अपने मार्ग पर लगाया, इस उपदेश की दीक्षा देते हैं कि ( वेद के स्थान पर ) स्वसंवेद्य को पढ़ो (अर्थात् अपरोक्षानुभूति को प्राप्ठ करो।) (यही) विधि निषेध का अनुगमन करना है, रहस्यों का रहस्य जानना है, सव श्राशाओं को पूर्ण करना है। विषमी संधि (बंक नालि, सुपुम्णा जहाँ इला-पिंगला दोनों प्रवाहों को संधि है ) में पाँचों समय संध्या (नमाज) करो। दशम द्वार (अमरंध्र) में रहना चाहिए और निराकार पद का सेवन करना चाहिए। अजपा जाप को जपो। प्रारम-तत्व का विचार करो। इससे सभी व्यापने वाली व्याधियों या उपाधियाँ छूट जाती हैं। पुण्य और पाप कोई वहाँ जिप्त नहीं होता है। रात-दिन एक - १. (घ) जुगि जुगि चत्र वरण राह । २. (घ) सुसमवेद । ३. (घ) पाईला मेदानिभेद । ४. (क) विषिमी; (घ) में 'विषमी.. निराकारा' तथा 'जपिले. पुंनि पाप' का स्थान परस्पर बदला हुआ है । ५. (क) मझारि । ६, (घ) दसवै द्वारि । ७. (घ) सेयवा । ८. (घ) आपो आप । ६. (घ) छूटीला सकल । १०. (घ) नाहीं । ११. (घ) पुनि । १२. (घ) समो ध्यान । १३. (घ) रमईया १४. (घ) 'नाया नहीं है । १५. (घ) पाईला। porno