गोरख-बानी] १२९ चीटी केरा नेत्र में गज्येंद्र समाइला, गावडी के मुष मैं बाघला विवाइला ।४। बारें वरसैं बंझ५ व्याई, हाथ पाव टूटा, बदंत गोरषनाथ मछिंद्र ना पूता ॥३४॥ कहा बुझ अवधू राइ' गगन २ न धरनी, चंद न सूर दिवस१४ नहीं नीं५॥ टेक ॥ ॐकार निराकार सूछिम न अस्थूल ६, पेड़ न पत्र फलै नहीं फूल ७॥१॥ पुनः प्रारंध्र में प्रवेश करेगा। और वहाँ बैठकर (जहाँ यह मार्ग ले जाता है अर्थात् ब्रह्मरंध्र में वह उस रोटी (ब्रह्मानुभूति) का भोग करता है। इस प्रकार चींटी की आँखों में गजेन्द्र समा जाता है। (अर्थात् सूक्ष्म आध्यात्मिक स्वरूप में स्थूल भौतिक रूप समा गया। गाय के मुंह में वाधिन विश्रा जाती है अर्थात् इसी भौतिक जीवन में उसको नाश करने वाला प्राध्या- त्मिक ज्ञान उत्पन्न हो जाता है। थारह वर्ष में बांस व्यायी है पर इस प्रसूति में उसके हाथ पांव टूट गये हैं, वह निकम्मी हो गई है :-यह मछन्दर के शिष्य गोरखनाथ का कथन है। मायिक जीवन निष्फल होता है, इस लिए उसे वोम कहा है । परन्तु बढ़ी साधना के अनन्तर इसी मायिक जीवन में ज्ञान की भी उत्पत्ति हो जाती है, यही घाम का विनाना है। जब ज्ञानोदय हो जाता है तब माया शक्ति हीन हो जाती है, यही उसके हाथ पांव टूटना है । ३६ ।। हे अवधृत-राज पूछते क्या हो ? (परमार्थ रूप से) न श्राकाश है न पृथ्वी, न चन्द्रमा न सूर्य, न दिन न रात । ॐकार (परब्रह्म) तो निराकार है। (निर्विशेष है, उस पर कोई विशेषण नहीं लग सकता । ) वह न सूचम है न स्थूल, उसके न पेड़ ( तना) है न पत्त । न वह फलता है न फूलता । उसकी १. (घ) में 'सत' नहीं है। २. (घ) कू । ३. (घ) तहां। ४. (क) के। ५. (घ) गजिंद्र । ६. (घ) का ! ७. (घ) व्याईला । ८.(घ) बारां बरसों वांझ । ९. (घ) कथंत । १०. (घ) का । ११. (घ) कैसे बोलू अवधू राय । १२. (घ) गिगन । १३. (घ) धरणी । १४. (घ) बाकै धौंस । १५. (घ) न रैणी । १६. (घ) नहीं थूला; (घ) में निराकार के पहले अकार नहीं । १७. (घ) 'सापा पत्र कली नहिं फूल।
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