पृष्ठ:गोरख-बानी.djvu/१६७

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१3 १३४ [ गोरख-बानी भणंत गोरखनाथ काया गढ़ लेबार, काया गढ़ लेबा जुगे जुगी जीवा२ ॥ टेक ॥ काया गढ़ भींतरि नौलख पाई, जंत्र५ फिरै गढ़ लिया न जाई ।। ऊचे नीचे परबत झिलमिलि पाई, कोठड़ी का पांणींपूरण गढ़ जाई।। इहां नहीं उहाँ नहीं त्रिकुटी मंझारी, सहज सुनि 'मैं रहनि हमारी ।३। आदिनाथ नाती मछिंद्रनाथ पूता, कायागढ़ जोतिले गोरषअवधूता ।४।३६ बदंत गोरष राई परसि ले केदारं, पाणी पीओ पूता तृभुवन सारं ।।टेक ऊँचे ऊँचे परबत विषम के घाट, तिहां गोरषनाथ के लिया सेबाट ॥१॥ गोरखनाथ कहते हैं कि काया गढ़ लेना चाहिये और इस प्रकार जुग जुग जीना चाहिए । इस काया रूप दुर्ग के भीतर नौ लाख खाइयां (नव रंध्र ) हैं जो भीतर पहुँचने में 'बाधा डालती हैं। यंत्र से गढ़ की रक्षा होती है । यह गड़ लिया नहीं जा सकता । दुर्ग बड़े दुर्गम स्थान पर है। वहां बहुत ऊँचे नीचे पर्वत हैं । ( वह स्थान बढ़ा ऊबड़ खाबद है । वह पानी जो सारे गह में पहुँचता है बहुत सुरक्षित (कोठड़ी में रक्खा गया है । (यही त्रिकुटी या ब्रह्मरंध्र है जहाँ से अमृत की धार सारे शरीर को पुष्ट करती है। ) यहाँ नहीं, वहाँ नहीं त्रिकुटी के मध्य सहन शून्य में हमारा निवास है । (अर्थात् हमने सारे गढ़ को पानी पहुँचाने वाली कोठड़ी पर अधिकार कर लिया है।) (इस प्रकार ) श्रादिनाथ के नाती शिष्य और मछन्दर के पुत्र-शिष्य गोरख ने सारे गढ़ को जीत लिया है ॥ ३९ ॥ गोरखनाथ कहते हैं कि केदार का स्पर्श दर लो ( परब्रह्म-स्पशी हो जायो, शिवजी के केवल दर्शनों का ही महत्व नहीं है, स्पर्श भी किया जाता है।) (और ब्रह्मरंध्र में पहुंच कर हे पुत्र ! त्रिभुवन में सार स्वरूप जल (अमृत) का पान करो। १. (घ) बदंत । २. (घ) लीजै 'लीजै - 'जीजै । ३. (घ) औधू जुगि चुगि । ४. (घ) नव । ५ (घ) चक्र । ६. (घ) लीयौ । ७. (घ) ऊँचा नीचा । ८. (घ) कोटड़ी। ९. (घ) पाणी। १०. (घ) यहां वहां । ११. (घ) 'सहज सुनि' के स्थान पर 'सुनि मंडल' । १२. (घ) रहणि । १३. (घ) मछिंद्र ना । १४. (घ) जीत्या।