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पृष्ठ:गोरख-बानी.djvu/१६८

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१३५ गोरख-बानी] काली गङ्गा धौली गङ्गा झिलिमिलि दीस, काउरू का पांणीं पुनि र गिर पईसै ।। अरधै जोगेस्वर उरधैं केदारं, भोला लोक न जानै मोष दुवारं ।३। आदि नाथ नाती मछींद्र नाथ पूता, काया केदार साधीले गोरप अवघृता। ४ ॥४०॥ कासौं झूझौं' अवधू राइ, विपष न दीसैर कोई । जासौं अव झूझो रे३ आत्मा राम सोई ॥ टेक ॥ आपण ही मछ कछ अपण ही जाल, आपण ही धीवर आपण ही काल । १ ।। (वहाँ पहुँचने के लिए बड़ा कठिन मार्ग है।) वहाँ बहुत ऊँचे ऊँचे पर्वत हैं और बहुत कठिन घाटियां हैं। लेकिन उनको भी गोरखनाथ ने सपाट (मैदान) कर लिया है । काली गंगा (यमुना, पिंगत्रा नादी) और धौनी गंगा (गंगा, इला नादी) दोनों (निकुटो स्थान में सुपुम्ना से मिलकर) प्रकाशमान रूप धारण कर रही है। गंगोत्री जमनोत्री का जो पानी कावदिए वितरित करने के लिए ले गये थे ( अर्थात् अमृत की जो धारा नीचे गिर कर नष्ट होती रहती है, वह फिर पर्वत में ( अर्थात् जहाँ से निकली है वहीं ) प्रविष्ट हो जाती है। (नीचे से बहकर सूर्य से सोख लिया जाने वाला अमृत फिर ऊर्ध्वगामी हो लाता है।) जीव ( नो योग साधन से योगेश्वर हो सकता है, उसका स्थान नीचे (अधः, अरध ) है और केदार (शिव, ब्रह्म ) का स्थान ऊपर ब्रह्मरंध्र में । भोले (मुर्स) लोग मोक्ष के द्वार को जानते ही नहीं हैं। परन्तु श्रादिनाथ के नाती-शिष्य और मदर के पुत्र-शिष्य गोरख अवधूत ने काया में स्थिर केदार को साध (सिद्ध कर) लिया है । ४० ॥ हे अवधूत-राज किसले युद्ध करूँ ! विपक्षी तो कोई दिखाई ही नहीं १. (घ) का झूमू अवधू राय । (क) में 'दीसै' नहीं है। ३.(घ) जाखू झूझण जायए आत्म मेर सोई । ४. (घ) आपण ही के स्थान पर सर्वत्र आपही । ५. (घ) झींवर ।