१३८ [गोरख-यानी गोड़ भए डगमग पेट भया' ढीला, सिर बगुलां को पंषियां3 श्रमी महारस वाघणी सोप्या घोर मथन जैसी अषियांश माघनी को निदिलै बाधनी कौं बिंदिलै बाघनी हमारी काया बाघनी घोषि घोषि सुदर'° पाये भणत गोरष राया।३। ॥४३॥ भोगिया सृते अजहूँ।२न जागे । भोग नही रे रोग अभागे ॥ टेक भोगिया कहैं। १४भल भोग हमारा । मनसइ नारि १५किया तन छारा ।। एक बूंद नर नारी रीधा । ताही मैं१७ सिध साधिक सीधा ।। , हे गुरुदेव ऐसा कर्म न कीजिए, इससे महारस अमृत क्षीण होता है। स्त्री के साथ रहने वाले पुरुष की अवस्था नदी किनारे के पेड़ के जैसी होती है। उसके जीवन की कम श्राशा होती है। माया नारी रूप मन को मोहती है और रात्रि को शुक्र स्खलन द्वारा अमृत सरोवर को सोखती है। इस प्रकार मूर्ख लोग बान बुम घर घर घर में बाधिन को पालते पोसते हैं । मन में ज्योंही मनसिज पैदा हुशा त्योही मेरु ( शिखर ) ( सुषुम्ना के अध्व-सुख ब्रहरंध्र से अमृत) नीचे गिर पड़ता हैं। इससे शरीर का नाश होता है। अथवा ज्योंही सनमें स्त्री के सम्बन्ध में ममत्व ( मेरी है, यह ) भाव उत्पन्न हुआ त्योंही अमृत नीचे स्खलित होने लगता है। मन का घोर मथन कर देने वाली आँखों से युक्त वाधिन (माया) जव महारस अमृत को सोख लेती है तो पैर उगमग, पेट ढीला और सिर के बाल बगुले के पंखों को भाँति सफेद हो जाते हैं ||४३॥ भोगी लोग सो हो रहे हैं, शव भी नहीं जागे । हे अमागे यह वास्तविक मानन्द भोग नहीं है, अरे यह तो रोग है। भोगो कहते हैं कि हमारा भोग अच्छा है । नारी इच्छा करके (मनसना इच्छा करना) उन्होंने अपने शरीर को भस्म कर डाला है। इसी एक बूंद के (आगन्द में ) नर नारी पच मरे १. (घ) भये । २. (घ) बगलै। ३. (घ) पंपीयां । ४. (घ) वाघणि पाया। ५. (घ) भई। (घ) अंपीयां । ७. (घ) 'वाघणी आगे सर्वत्र । ८. (घ) • 1 ६. (घ) बांदि लै । १०. (घ) सुरनर । ११. (घ) वंदत (? बदत)। १२. (घ) भोगीया पता बावा अजहुँ । १३. (क) भोगि । १४. (घ) भोगीया कहै । १५. (घ) मन समी नारी। १६. (घ) तन कीया। (घ) में इस चरण के बाद इतना अधिक है-मोगीया को भल भोग-विलास | भोग नह। यो कध- पिनास । १७. (घ) तहि राध्यां।
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