गोरख-बानी ५३६ भोगिया सोइ जोर भगथै न्यारा । राजस तामसमरै न द्वारा ॥३॥ भणत गोरखनाथ सुणो नर लोइ । कथणीं बदणी जोग न होई ।४॥४४॥ मारौ मारौ सपनी निरमल जल पैठी, त्रिभुवन' डसती गोरपनाथ दीठी टेक। मारौ स्रपणी जगाईल्यौ भौरा, जिनि मारी स्रपणी ताको कहा करै जौरा ।। स्रपणीं कहै मैं अबला बलिया'२, ब्रह्मा विष्न महादेव छलिया १3 १२ और उसी को साधना से सिद्ध कर साधकों को सिद्धि प्राप्त हुई। जो भग से अलग रहता है वही वास्तविक मानन्दी है । (वह सात्विक जीव है) राजस- तमस् उसके उपर प्रभाव नहीं डाल सकते और इस लिए उसके इन्द्रिय-द्वार से अमृत अथवा शुक्र मरता नहीं है। पागंतर का पारा और भी स्पष्ट है॥४४॥ निर्मल जल (अमृत सरोवर) में प्रवेश कर सर्पिणी माया को मारो। गोरखनाथ ने उसे त्रिभुवन को डसते देखा । कहते हैं जब में साँप का विष नहीं चढ़ता है। अमृत में प्रविष्ट साधक पर भी माया का कोई भी प्रभाव नहीं हो सकता । सर्पिणी को मारो और सहस्त्र-दल कमल के रस के इच्छुक, भ्रमर-गुहा (ब्रह्म-रंध्र) के निवासी भ्रमर ( ब्रह्म, प्रात्मा को बगा बो। जिसने सर्पिणी को मार डाला है। उसका यमराज (यमराज, नौरा क्या कर सकता है ? सर्पिणी कहती है कि मैं यलवती अवला (स्त्री) हूँ। मैंने ब्रह्मा विष्णु महादेव सबको छल लिया है। इस प्रकार मतवाली सर्पियो (माया) बसों दिशाओं में दौड़ती रहती है किन्तु गोरखनाथ कहते हैं कि गारुडी पवन उसे शीघ्र ( इधर उधर से खींच कर यथा स्थान ) ले पाता है या गोरखनाथ । १. (घ) भोगीया । २. (घ) ज । ३. (क) राज्स तामस । ४. (घ) पारा । ५. (घ) बदंत । ६. (घ) सुणौं । ७. कयली बदणी। ८. (घ) अपणी । ९. (क), (घ) नृमल । १०. (घ) त्रिभवन । ११. (घ) मारिल्यौ । १२. (घ) अमला मलीया । १३. (घ) छलीया ।
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