पृष्ठ:गोरख-बानी.djvu/१७६

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2 Hि?" गोरख-बानी] १४१ आसा तजीला' तृसना तजीला' तजीला' मनसा माई, नौ घंड पृथ्वी५ फेरि नै पालौं गोरप रहीला मछिंद्र ठाई ॥४६॥ नाथ बोलै अमृत बांणीं बरिषैगी कंवली' भीजैगा पाणीटेकर गाड़ि पडरवा बांधिलै फूटा, चलें दमांमां बाजिले २ ऊँटा ।। कउवा की डाली पीपल' 3 बासै भूसा'४ कै सबद ५बिलइया नास।२। चले बटावा'६ थाको ७ वाट, सोवै डुकरिया ८ ठोरै पाट ३॥ दकिले कूकर भूकिले२० चोर, कालै धणी पुकारै ढोर ।४। संधि है, ( जहाँ यह तीनों अन्ततः नीन हो जाते हैं । ) गोरख ने श्राशा, तृप्या और इच्छा रूप माया को छोड़ दिया है और नौ खंड पृथ्वी फिर-श्राकर वह मन्दर के स्थान पर (उनकी शरण में अथवा सहस्रार में जो परमगुरु ब्रह्म का स्थान है) निवास करता है ॥ ४६ ॥ नाथ अमृत पायी बोलता है-'कंवली ( दैहिक मानसिक कर्म जो सामा- न्यतया जोगी को अमृत की वर्षा में भोगने से बचाते रहते हैं भव शुद्ध होकर अमृत (मय कमों के रूप में) बल (-बिंदु निर्मित भस्तित्व के ऊपर) परस रही है । पररवा अर्थात् अविवेक को (जो माया रूप गाय या पशु की सन्तान है) गाद कर सटे को (अर्थात् माया जो जीव को बाँधने के लिए खूटे का काम करती है) बांध बो ( उसका निरोध कर लो) दमामा (अनाहत नाद) चलता है, बंद नहीं है, निरन्तर सुनायी दे रहा है जिससे उट ( स्थून मन) पर तडातड़ मार पड़ रही है, वह पाजे की तरह बजाया जा रहा है। कौए (छन्द्र, अविवेकी, प्रासापाद्य का विचार न रखने वाले मन) को शाखा (ऊँची अवस्था ) पर बैठ कर हो पीपन (बदा पवित्र और छाया देने वाला वृक्ष अर्थात् प्रमानुभव बोलता है।) चूहे ( सूक्ष्म अतर्मुख बोवन ) का शब्द सुनकर बिवली (माया, जो पहले अध्यात्मिक जीवन को भगाने में समय भी भव बरसैगी। १०. १. (घ) तजीली । २. (घ) तृष्नां । ३. (घ) मनछा । ४. (घ) नव ! ५. (घ) पृयो । ६. (घ) आलू । ७. (घ) ठाई । ८. (५) अमृत वाणी । ६. (प) (घ) कंवलीयां । ११. (घ) पाणी। १२. (घ) बानि है। १३. (घ) पीपल । १४. (घ) भूसै । १५. (घ) सबदि १६. (घ) वटऊ । १५. (५) सोकी । १८. (१) होकरिया । १६. (घ) ठौर। २०. (घ) मुसिले । २१