पृष्ठ:गोरख-बानी.djvu/१८६

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- गोरल-बानी] चेला सब सूता नाथसतगुर जागै। दसवै द्वारि अवधू मधुकरी मांग ।।टेक सहजै पपरा सुषमनि डंडा। पांच संगाती मिलि पेलें नव पंडा। गंग जमन मधि श्रासण बालौ । अनहद नाद काल भै टालौ। गगन मंडल मैं रमूं अकेला । उरथ मुषि बंक नालि अमीरस मेला। कथंत गोरपनाथ गुरु उपदेसा, मिल्यां संत जन टल्या अंदेसा ॥५३॥ रे मन हीरै हीरा बेधित्ला, तो काया केणे जाई। गिगन सिपर चंदा रहिवो समाई ॥ टेक ।। सात पांच तीनि नव धरि लै उपाई। विपरति करणी करिलै ज्यू थिर है बाई !! सारा संसार नाथ (परबम ) का चेला है। अमसाक्षात्कार हो ज्ञान प्राप्त करना है। इसलिए नाथ को सद्गुर कहा है। केवल परग्रहानाथ ही जागता है। मनुष्य भी बाग जाते हैं, पर जाग जाने पर वे भी परमल हो जाते हैं, वे संसार के अंतर्गत नहीं गिने नाते, गुरु चेले का भेद नहीं रह जाता। इसलिए बाथ ही जागते हैं, सारा संसार सोता रहता है । वह नाथ अवधूत दुनिया में मीख माँगने को नहीं फिरता । यह तो प्रारंध्र में मधुकरी मांगता है, धमृत रसास्वादन करता है। इस नाथ रूप योगी के पास सहज ज्ञान का तो खप्पर । सुपुग्णा का दंर है। पंच ज्ञानेन्द्रियाँ उसकी विरोधी नहीं हैं, साथी हैं। घे आत्मानुभूति (ब्रह्मज्ञान) में बाधा नहीं डालतीं। उनके साथ मिल कर नाय नय र अर्थात् नव द्वारों में (जो सामान्य लोगों के लिए भारमानुभूति का मार्ग बंद किये रहते हैं,) खेलते रहते हैं, इन्द्रियाँ भी सुसंस्कृत होकर पद्यानंद में भागी होती हैं। तुम भी उनको तरह इसा और पिगला के यीच में भासन (जमाये, घुनी ) जलाये रहो। मनाहत नाद को सुनकर काल के भय को टालो । (मैं उनके उपदेश से ) श्राकाश मंडल त्रिकुटी या ब्रसरंध्र में अकेले रमता रहता हूँ। और अव मुखी यंकनाव सुपुष्या से अमृत रस को निकालता (अर्थात उसका उपभोग करता रहता है। इस प्रकार गोरखनाथ गुरु का दिया आ उपदेश दुहराता है। संत बनके मिलने से संशय का नाश हो जाता है हेमन ! जब होरे ने हीरे को वेष लिया अर्यास् जब धारमा का परमारमा • पद ५३ से ५८ तक केवल (घ) के आधार पर । २२