पृष्ठ:गोरख-बानी.djvu/१८७

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१५० [गोरखवानी बाई जब थिरि है महारस सीझै। कोट्यां मधे गुरू देवा गोटा एक बुझे ।१॥ कांने रातां दौरौं गाटा किणि मीर मुले। सदा अभ्यास रहै जोगी गंगा जमुन कूले ।। गंगा जमुना कूले पैसि करिले असनांनं । चांपीला मूले अवधू धरीला धियांनं ।। मेर इंड थिरि करै म्यौ सक्ती जोड़े। कोई गुरू श्राराधीला जो ब्रह्म गांठि छोड़ें। से परिचय हो गया, श्रात्मा ब्रह्म में मिल गयो तब काया में क्यों या कौन जाय अर्थात् अंतर्मुख वृत्ति हो जाने पर बर्हिमुख वृत्ति नहीं रही। आकाश के शिखर अर्थात् ममरंध्र में रहने वाले चंद्रमा में प्रारमा को लीन किये रहो। उपाय पूर्वक पाँच तत्व, तन्मात्रा या इन्द्रियों के तथा तीन गुणों और नव द्वारों पर अपना अधिकार कर लो। इनके अधिकार में न रहो । विपरीत करणी मुद्रा का अभ्यास करो जिससे वायु स्थिर होगी। वायु के स्थिर होने से महारस (अमृत) सिद्ध होगा । हे गुरुदेव करोड़ों में से किसी एक को उस गुटिका का शान होता है जिसके प्रयोग से महारस (अमृत-मदिरा) सिद्ध होता है । कानों में अनुरक्त होना अर्थात् दर्शन (मुद्रा ) पहनना और रोरों से गठा होना भर्यात् सेली धारण करना ही क्या है प्रभु ! मूल वस्तु या योग साधन है ? (इन बाहरी यातों में न पर कर ) योगी को गंगा यमुना के फूल पर भाद इरा और पिंगला में (प्राणायाम रूप) स्नान से शुद्ध हो जाना चाहिए । मूलाधार को दया कर अर्यात् संकोचन कर (-स्थिर होने के लिए यह भावश्यक है-)ज्यान घरी। मेर दंढ को स्थिर करके शिव और शक्ति को जोग । किसी ऐसे पहुँचे हुए सिद और योगी को भारामना करो जो तुम्हारी ब्रह्म-ग्रंथि को छुदा । मेरु या १ संभवतः शुद्ध पाठ यह हो- कांने रातां टोरौं गाटा किमि वीर भूले। कान से अनुरस और दोरी से गठे हुए अर्यात् मुद्रा और सेली धारण को ही योग मापन गमगार हे शूर तुम भूले हुए क्यों हो ! लाक्षणिक अर्थ में योगी शूर कहलाता है। माया के पलो मे उसका युद्ध होता है।