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१५८ [गोरख-बानी निज तत नांव अमूरति मुरति । सब देवां सिरि उबुदि सुरति ॥ आदिनाथ नाती मनेंद्र ना पूता। आरती करै गोरष औधूता ॥२॥ नहीं है ! उसकी कलाएं अनंत है। उसका कोई पार नहीं पा सकता । वहाँ शंख, मृदंग, बांसुरी आदि को ध्वनि हो रही है। स्वाति बूंद अर्थात् मुक्ता रूप ज्ञान से मैं इस कलश रूपी शरीर को पूर्ण कर बंदना करके उसे चढ़ाऊँ । निरति सुरति के फूल अर्पित करूँ। उस निरजन की मूर्ति अमृत है अर्थात् उसकी मूर्ति नहीं उसका निज तत्व नाम है । वह ज्ञानमूर्ति सब देवताओं में श्रेष्ठ है । इस प्रकार आदिनाथ का नाती-शिष्य और मत्स्येनदाथ का पुन्न-शिष्य गोरखा अवधूत भारती करता