गोरख-बानी] १५७ [भारती] नाथ निरंजन भारती गाऊ । गुरदयाल अग्यां जो पाऊ टेका। जहां अनंत सिधां मिलि आरती गाई । तहां जम की बाच न नैड़ी आई जहां जोगेसुर हरि कूध्यां। चंद सूर तहां सीस नवां । मछिंद्र प्रसादे जती गोरषनाथ आरती गावै। नूर झिलमिलि दीसै तहां अनत न आवै ॥६१७।। नाथ निरंजन आरती साजै । गुर के सबद झालरि वाजै ॥ टेक ॥ अनहद नाद गगन मैं गाजै । परम जोति तहां आप विराज दीपक जोति अपंडत बाती। परम जाति जगै दिन रात्ती। सकल भवन उजियारा होई । देव निरंजन और न कोई। अनत कला जाकै पार न पावै । संष मृदंग धुनि वेनि वजावै ॥ स्वांति वूद ले कलस बंदाऊ । निरति सुरति ले पहुप चढ़ाऊँ ।। यदि दयाल गुरु की आज्ञा पाठ तो मैं परब्रह्म निरंजननाथ की भारती गाऊँ । जहाँ अनन्त सिद्ध ईश्वर-प्रणिधान में लगे रहते हैं, वहीं यम की हवा भी निकट नहीं पाती। नहाँ योगीश्वर ध्यान में मग्न रहते हैं वहाँ चंद्रमा और सूर्य भी शीश नवाते हैं, अर्थात् ये दोनों भी ईश्वर के वश में है और अंततः दोनों चन्द्र और सूर्य नाही अथवा अमृतस्रावक चंद्र और मूलाधारस्य अमृत- शोपक सूर्य दोनों योगी के वश में हो जाते हैं। मत्स्येन्द्र के प्रसाद से गोरखनाय भारती गाता है । उसे परब्रह्म का मिजमिल प्रकाश दिखायी देता है। उस अवस्था में वह एक रस स्थित है, अन्यत्र (दूसरी अवस्था में ) नहीं आता. जाता ॥६॥ नाथ निरंजन परब्रह्म की भारती सजते हैं। गुरु के शब्द रूप मॉम बज रहे हैं। प्रारंध्र या गगन में अनाहत नाद बन रहा है। वहीं ज्योति स्वरूप निरंजन ब्रह्म विराजमान हैं । यह अखंड बचियों को ज्योति है, कमी बुम नहीं सकती, रात दिन यलती रहती है । सब लाकों में उससे उजावा होता रहता है। ( उस प्रकाश में दिखाई देता है कि ) निरजन ब्रह्म के अतिरिक और कोई पद ६१ और ६२ केवल (घ) के आधार पर ।
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