भूमिका] 'सवदी गोरख की सप से प्रामाणिक रचना जान पड़ती है। वह सब प्रतियों में मिलती है। परंतु वह उतनी परिचित नहीं जितना 'गोरख धोध । सब से पहली छपी प्रति (खंडित) भी जो मेरे देखने में आई है, वह उसी की है, और काशी की कार्माइकेल लाइब्रेरी में रक्खी है। उसे शिवराम शर्मा बुकसेलर पुरव फाटक, बनारसने १९११ में प्रकाशित किया था, इसका एक अच्छा संस्करण लाहौर के डा० मोहनसिंह ने भी सम्पादित किया है, जिसमें साथ में अंग्रेजी अनु- वाद दिया हुश्रा है । अन्य रचनाओं की कोई छपी प्रति मेरे देखने में नहीं पायो । इस ग्रंथ के संपादन का कार्य मैने बहुत पहले प्रारम्भ कर लिया था। कुछ प्रतियों का पता मुझे बहुत पीछे लगा। उदाहरणतः (च) (छ) प्रतियों का पता तब लगा जब समस्त ग्रन्थ का सम्पादन हो चुका था। उनके पाठ का मिलान करने से भी पता चला कि उनमें पाठ ऐसे नहीं हैं जो इन प्रतियों में से किसी में न आ गये हों। उदाहरण के लिए---इस भाग के परिशिष्ट में प्रारम्भ की १६ सदियों के पाठांतर दे दिये गये हैं, जिससे यह बात पुष्ट होती है। इसलिए इन दो प्रतियों से मैंने बहुत थोड़ी सहायता ली है। सबसे अधिक उपयोग मैंने (क) (ख) (ग) और (घ) प्रतियों का किया है। अधिकांश में मुझे सबसे अच्छा पाठ (क) प्रति का लगा है। इस लिए अधिकांश में मैं उसी को आधार बना कर चला हूँ। संपूर्ण पाठ मैंने उसका भी नहीं स्वीकार किया है। जहाँ कहीं अन्य प्रतियों में मुझे उससे अच्छा पाठ मिला है, उसको मैंने मूल में किया है। पाठ अधिकतर वही रक्खा गया है जो किसी न किसी लिखी प्रति में मिलता है। जहाँ कहीं स्पष्ट ही अशुद्धि है और उसका प्रमाण मिलता है, वहीं मैंने अपनी ओर से नया पाठ दिया है तथा टिप्पणी में कारण सहित इस थात का संकेत कर दिया है। सब पाठांतर टिप्पणी में दे दिये गये हैं। इस प्रकार मूल में रखने से पहले प्रत्येक शब्द पर अलग-अलग विचार किया गया है। (ख) प्रति को छोड़कर अन्य प्रतियों में 'ख' सर्वत्र 'प' लिखा गया है। और (ख) में भी सर्वत्र 'ख' नहीं मिलता है। इस लिए मूल में सर्वत्र 'प' ही रक्खा गया है । जहाँ कहीं 'ख' छप गया हो उसे पाठक 'प' बना लें । प्रतियों में कहीं चन्द्रबिंदु नहीं है। मूल में चन्द्रबिंदु कहीं-कहीं पर मा गये हैं। हस्त मात्राओं के साथ जहाँ चन्द्रबिंदु मिले, वे जान बुझ कर उच्चारण की सुविधा के लिए रस्खे गये हैं। दीर्घ मात्रामों के साथ जहाँ-जहाँ चंद्रबिंदु लपे हों उन्हें अनुस्वार सममाना चाहिए।
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