पृष्ठ:गोरख-बानी.djvu/२०१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

१६२ [गोरख-बानी ४ अनंत सिधा तहां सारमसारं । निश्चल' थीरं तब होइ निरालं । अजाचीक भिक्ष्या आइबिथांन । गुरू मछींद्रनाथ नी सिछथा पहरिबाकांनं अकलप डीवी भोली निरासा सजीवन मात्रा बीरजनासं । एकांति रहीबा अवधू बेधिबा थूलं । नहिं होवै आवागमन का मूलं । बारह कला देवी सोलह कला देवं । सुषमनां नारी बंधिबा भेवं । नौ से जोगणीं चालिबा साथं । बुरिज बहतरि गाइवा नाथं । नक पंड प्रिथमी' मांगिवा भिक्षा ८ 1 त्रिलोकमधेन होइवी बिप्यष्या१९॥ चवदह २ ब्रीड तहां जोइबा द्वार २२ । षट दरसन ए पंथ लै सारं । अजाचीक-अयाचित । गुरु'कान' =(कानों में मुद्रा पहरने की आवश्यकता नहीं।) गुरु मत्स्येन्द्र नाथ की शिक्षा को कानों में पहनो। निश्चितता ही छप्पर है, किसी से आशा न रखना ही ( नैराश्य ही) मोबी है । ऊम्वरेता होकर ब्रह्मरंध्र में वीर्य को खींचना ही संजीवन बूटी की 1 मान्ना tho एकांत में रहना चाहिए । अवधूत स्थूल माया को वेधना चाहिये अर्थात् उसका रहस्य जानना चाहिये । ऐसा करने से आवागमन का मूल नष्ट हो जाता है, देवी (कुंडलिनी शक्ति जिस के साथ सूर्य का संपर्क है) की बाहर कलाएँ और देव शिव) की सोलह (चंद्र) कलाएँ हैं जिन को सुषुम्णा के द्वारा वश में करके उनका रहस्य जानना चाहिए । इस प्रकार नौ सौ जोगिनियों ( नव नाड़ियों ) १. (घ) अनत ! २. (घ) निहचल । ३. () में 'तब होइ' के स्थान पर 'तत' । ४. (घ) भिछया। ५ (घ) आयबा ! ६. (घ) मछिंद्रनाथ सिछया; (क) मछिन्द्रनाथनी भिष्या । ७. (घ) यकतरि । ८. (घ) बंचिबा सूलं । ९. (घ) वाराह, सोलह । १०. (घ) नाड़ी । ११. (घ) नव । १२. (घ) जोगणी। १३. (घ) चलायवा १४. (घ) वरजि । १५. (घ) वहौतरि । १६. (घ) बजा. यवा । १७. (क) पृथमीं; (घ) प्रिथमी १८. (घ) भिछया । १९. (घ) होयगी उपछया । यह पंक्ति (अ) में अनुवादित नहीं है । २०.(घ) चौदा ! २१. (घ) जोयवा | २२. (क) धारं ।