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पृष्ठ:गोरख-बानी.djvu/२१०

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गोरख-बानी] १७१ टूटै पवनां छीजै काया । पासण दिढ करि बैसौर राया। तीरथ बर्त कदे जिनि करो। गिर परवतां चढ़ि प्रान मति हरी ॥८॥ पूजा पाति जपौ जिनि जाप । जोग माहि५ विटंबो श्राप । छाडौ बैद बणज-व्यौपार । पढ़िवा गुणिवा लोकाचार ॥६।। बहुचेला' का संग निवारि । उपाधि मसाण बाद विष टारि। येता कहिये प्रतक्षि काल । एकाएको रहौ भुवाल ॥१०॥ निवांण निम्न, नीचा तल वाला (यहाँ पर ), वैसे इसके माने वालमा भी होते हैं। शब्द 'निम्न' से यना है। गढ़वाली भाषा में नम्र और छोटे के लिए भी जरा अंतर से प्रयोग पाता है-निमाणो- विटंबोविंदम्बन करते हो, हँसो उदाते या उदवाते हो । गढ़वाली में विटमना गाली देने के अर्थ में प्रयुक्त होता है । वैद-वैद्यक । बिषटारि=विष समझ कर टालो। १. (घ) तूटै। २. (घ) बैठो। इस चरण के बाद (घ) में इतना अधिक है- 'छाड़ो विधि विणज न्यौपार, पढ़िवा गुणिवा लोकाचार ।' ३. (घ) में वर्त कदै जिनि के स्थान पर 'जात्रा सहज मति' । ४. (क) प्रबतां ५. (क) माहि; (घ) गमावै । ६. (घ) बंटवै । इस चरण के आगे (घ) में इतना अधिक है। 'गरव करि जिणि धरौ फणिंद, आपा मेटवां रहौ निरंद ॥' ६. (घ) 'बैद वणज' के स्थान पर 'विधि विणज। ७. (घ) में इसके आगे के दो चरण इस प्रकार हैं- घणा चेला है प्रतषि काल । ऐकाऐक तुम रमौ भुवाल ||१५|| (क) में चरणों का स्थान वदला है। इन चरणों के आगे (घ) में इतना और है- धन कंचन की करौ जिनि श्रासा। मिथ्या भोजन परम उदाग। काम क्रोध अहंकार निवारि । तीनि तजौ तौ उतरो पारि १६॥ संघ सवद जिनि पूरौ नाद । धुनि मैं रहौ ज्यू पावौ स्वाद । जीवण महारस दिद करि जाणि । अमर महारस लेहु पिचाणि ॥१७ --