पृष्ठ:गोरख-बानी.djvu/२३०

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मोरख-बानी] मछिद्र-अवधु सहज हंस का खेल मणीज, सुंनि हंस का बास'। सहजै ही आकार निराकार होइसी, परम जोति हंस का निवास ॥४०॥ मोरष- स्वामी अमूल का कौण मूल, मूल का कथं बास । पद का कौण गुरू, पूछत* गोरप नाथ ॥ ४१ ॥ मछिद्र--अवधू अमूल का सुंनि मूल, मूल का निरन्तर वास । पद का निरबांन गुरु, कयंत मछिंद्र नाथ ।। ४२ ॥ गोरष-स्वामी जी कथं उतपदिते प्रांण, कथं उदपदिते मन। कथं उदपदिते बाचा, कथं बाचा बिलीयते ॥ ४३ ॥ मछिंद्र-अवधू अवगति उतपदिते प्राण, प्राण उदपदिते मन१० मन उदपदिते बाचा, बाचा मन बिलीयते ॥४४॥ गोरष-स्वामी कौंन सरोबर कौंण सनाल । कौंण मुष होइ वंचिये काल । लोक अगोचर कैसे लिवरलहै । मन पवन कैसें समि रहे ॥४५॥ मछिद्र-अवधू मन सरोवर पवन सनाल। उरधामुष होइ बंचिये जंम काल । अरघ उरधा अगोचर लिवालहै । मन पवन ऐसें समि रहै ॥४६ ॥ गोरप-स्वामी कौंन सो विषमी कोण सौ संधि । कोणे चको लागै बंध। कोणें-चेतनि मन उनमनि रहै । सतगुर होइसुझां कहै ॥४॥ मछिद्र-अवधूअनली बिमली विषमी संधि । चाकी १९परि लागै वन्ध । सदा चेतनि मन उनमन रहै। ऐसा विचार मछिंद्र कहै ॥४॥ - । १. (घ) बासा...निवासा। २. (घ) सहज हो . ३. (घ) निराकार । ४. (क) पर्म । ५. (प) पूछंत जवी । ६. (क) नृवांण । ७. (घ) भी म... ८. () मॅन । ६. (क) में ४३, ४ नहीं है। १.. (घ) मुषि। ११. (५) वांचीवा। १२. (घ) ल्यो। १३. (क) उरद । १४. (घ) अर्घ उर्घ । १५. (घ) । १६. (५) सिध । १७. (घ) कौंण ही चक्री लाये । १८. (१) बौदा । १९. (१) चौकी।